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नरोत्तमदास
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द्वारका जाहु जू द्वारका जाहु जू आठहु याम यही झक तेरे।
जौ न कहो करिये तौ बड़ो दुःख पैहों कहाँ अपनी गति हेरे।
द्वार खड़े प्रभु के छड़िया तहँ भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारी तौ देखु विचारि के भेंट को चारि न चामर मेरे॥१०॥

यह सुनि के तब ब्राह्मणी गई परोसिन पास।
सेर पाव चामर लिये आई सहित हुलास॥११॥
सिद्धि करौ गणपति सुमिरि बाँधि दुपटिया खूट।
चले जाहु तेहि मारगहि माँगत वाली बूट॥१२॥

मंगल संगीत धाम धाम में पुनीत जहाँ नाचें वारवधू
देवनारि अनुहारका। घंटन के नाद कहूँ बाजन के छाय रहे
कहूँ कीर केकी पढ़ें सुक और सारिका। रतनन ठाट हाट
बाटन में देखियत घूमें गज अश्व रथ पत्ति नर नारिका। दशो-
दिशा भीर द्विज धरत न धीर मन उठत है पीर लखि बलवीर
द्वारिका॥१३॥
दृष्टि चकचोंधि गयी देखत सुवरनमयी एकते सरस एक
द्वारका के भौन हैं। पूछे बिन कोऊ काहू से न करै बात जहाँ
देवता से बैठे सब साधि साधि मौन हैं। देखत सुदामा धाय
पुरजन गहे पाय कृपा करि कहो कहाँ कीने विप्र गौन हैं। धीरज
अधीर के हरण परपीर के बताओ बलवीर के महल यहाँ
कौन हैं॥१४॥

द्वारपाल चलि तहँ गयो जहाँ कृष्ण यदुराय।
हाथ जोरि ठाड़ो भयो बोल्यो शीश नवाय॥१५॥

शीश पगा न झँगा तन में प्रभु जानें को आहि बसै कि हिं ग्रामा।
धोती फटी सी फटी दुपटी अरु पाँय उपानह की नहि सामा॥
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल देखि रह्यो वकि सो वसुधा अभिरामा।
दीनदयालु को पूछत नाम बतावत आपनो नाम सुदामा॥१६॥