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कविता-कौमुदी
 

कोदों समा जुरतौ भरिपेट न चाहति हौं दधि दूध मिठौती।
शीत व्यतीत गयो सिसिआतहि हौं हठती पै तुम्हें न हठौती।
जौ जनती न हितू हरि से तौ मैं काहे को द्वारका ठेल पठौती।
या घरसे कबहूँ न गयो पिय टूटौ तवा अरु फूटी कठौती॥५॥

छाँड़ि सबै झख तोहि लगी बक आठहुँ याम यही ठक ठानी।
जातहि देहैं लदाय लढ़ा भरि लैहों लदाय यही जिय जानी।
पैये अटारी अटा कहँते जिन को विधि दीनी है टूटी सी छानी।
जोपै दरिद्र ललाट लिख्यौ तापै काडु के मेटे न जात अजानी॥६॥

फाटे पट टूटी छानि खायो भीख माँगि आनि बिना गये
विमुख रहत देव पित्रई। वे हैं दीनबन्धु दुःखी देखके दयालु ह्वै
हैं दैं हैं कछु भलो सो हौं जानत अगत्रई द्वारका लों जात पिय
केतौ अलसात तुम काहे को लजात भई कौन सी विचित्रई।
जोपै सब जन्म ये दरिद्र ही सतायो तोपै कौन काज आय है
कृपानिधि की मित्रई॥७॥

तैं तो कही नीकी सुन बात हित ही की यह रीत्ति मित्रई
की नित प्रीति सरसाइये। चित्त के मिलेते वित्त चाहिये
परसपर मित्र के जो जेंइये तो आप हू जिमाइये। वे हैं महाराज
जोरि बैठत समाज भूप तहाँ यह रूप जाय कहा सकुचाइये।
दुःख सुख सब दिन काटे ही बनेगो भूल विपति परे पै
द्वार मित्र के न जाइये॥८॥

विप्र के भगत हरि जगत। विदित बन्धु लेत सब ही की
सुधि ऐसे महादानि हैं। पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो
बार लोचन अपार वे तुम्हें न पहिचानिहैं। एक दीनबन्धु
कृपासिंधु फेर गुरुबन्धु तुम सम कौन दीन जाको जिय
जानिहैं। नाम लेत चौगुनी गये ते द्वार सौगुनी बिलोकत
सहसगुनी प्रीति प्रभु मानिहें॥९॥