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दादू दयाल'
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के थोड़े ही भजनों में पाया जाता है। कबीर साहब की तरह दादू दयाल भी हिन्दू मुसलमानो में भेद नहीं मानते थे। यह उनके पदों से साफ़ साफ़ प्रकट होता है।

यहाँ हम दादू दयाल के कुछ चुने हुये दोहे और पद प्रकाशित करते हैं—

घीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब ही ठौर।
दादू वकता बहुत हैं मथि काढ़ैं ते और॥१॥
दादू दिया हैं भला दिया करो सब कोय।
घर में धरा न पाइये जो कर दिया न होय॥२॥
यह मसीत यह देहरा सतगुरु दिया दिखाइ।
भीतरि सेवा बंदगी बाहिर काहे जाइ॥३॥
कहि कहि मेरी जीभ रहि सुणि सुणि तेरे कान।
सतगुरु बपुरा क्या करै जो चेला मूढ़ अजान॥४॥
सुख का साथी जगत सब दुःख का नाहीं कोइ।
दुख का साथी साइयाँ दादू सतगुरु होइ॥५॥
दादू देख दयाल कौ सकल रहा भरपूर।
रोम रोम में रमि रह्यो तू जिनि जानै दूर॥६॥
मिसरी माँहैं मेल करि माल बिकाना वंस।
यो दादू महिँगा भया पारब्रह्म मिलि हंस॥७॥
केते पारिख पचि मुये कीमति कही न जाइ।
दादू सब हैरान हैं गूँगे का गुड़ खाइ॥८॥
जब मन लागै राम सों तब अनत काहे को जाइ।
दादू पाणी लूण ज्यों ऐसै रहै समाइ॥९॥
क्या मुँह ले हँसि बोलिये दादू दीजै रोइ।
जनम अमोलक आपणा चले अकारथ खोइ॥१०॥