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कविता-कौमुदी
 

जाको जस है जगत मैं जगत सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है कइन अकब्बर साहि॥१॥

साहि अकब्बर एक समैं चने कान्ह बिनोद बिलोकन बालहिँ।
आहट से अबला निरख्यो चकिचौंकि चलीकरिआतुर बालहिँ।
त्यों बली बेनी सुधारि घरी सु भई छबियों ललना अरु लालहिँ।
चम्पक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिये अहिव्यालहिँ॥२॥
केलि करैं विपरीत रमैं सु अकब्बर क्यों न इतो सुख पावै।
कामिका कटि किंकिनि कान किधौं गनि पीतम के गुन गावै।
बिन्दु छुटी मन में सुललाट तें यों लटमें लटको लगि आवै।
साहि मनोज मनोचित मैं छवि चन्द लये चकडोर खिलावै॥३॥


 


दादूदयाल

दादू दयाल का जन्म फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, बृहस्पतिवार संवत् १६०१ वि॰ में हुआ था। जन्म स्थान कहाँ था, इस विषय में बड़ा मतभेद पाया जाता है। दादूपंथी लोग कहते हैं कि इनका जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। महामहो पाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी ने इनका जन्मस्थान जौनपूर बनलाया है।क्षपरन्तु दादू दयाल की कविता की भाषा देखने से गुजरात देश ही उनका जन्मस्थान प्रतीति होता है।

ये किस जाति के थे, इसमें भी बड़ा झगड़ा है। कोई इन्हें गुजराती ब्राह्मण बतलाता है, कोई मोची और कोई धुनिया कहता है। सर्वसाधारण में ये धुनिया ही प्रसिद्ध हैं; परन्तु "जाति पाँति पूछै ना कोई, हरि का भजै सो हरि का