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कविता-कौमूदी
 

बान बधि बधिक बधे को खोज लेत फेरि
बधिक बधू ना खोज लीन्ही फेरि बधि कै॥१०॥
मालती शकुंतला सी को है कामकंदला सी
हाजिर हजार चारु नदी नौल नागरै।
ऐल फैल फिरत खवास खास आस पास
चोवन की चहल गुलावन की गागरै।
ऐसी मजलिस तेरी देखी बीरबर
गंग कहैं गूँगी ह्वै कै रही है गिरा गरै।
महि रह्यो मागधान गीत रह्यो ग्वालियर
गोरा रह्यो गोर जा अगर रह्यो आगरै॥११॥
राजे भाजे राज छोड़ि रन छोड़ि रजपूत
रौतौ छोड़ि राउत रनाई छोड़ि रानाजू।
कहैं कवि गंग हूल समुद्र के चहूँ कूल
कियो न करै कबूल तिय खसमाना जू।
पशिचम पुरतगाल कासमीर अवताल
खक्खर को देस बाढ्यो भक्खर भगाना जू।
रूम साम लोम सोम बलक बदाऊशान
खैल फैल ख़ुरासान खीझे खानखाना जू॥१२॥
कोप कशमीर तें चल्यो है दल साजि बीर
धीर ना धरत गल गाजिबे को भीम है।
सु्न्न होत साँझे ते बजत दंत आधीरात
तीसरे पहर में दहल दै असीम है।
कहै कवि गंग चौथे पहर सतावै आनि
निपट निगोरी मोहिं जानि कै यतीम है।
बाढ़ी शीत शंका काँपै कर ह्वै अतङ्का
लघुशंका के लगे तें होत लंकाकी मुहीम है॥१३॥