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कविता-कौमुदी
 

कई कवि गंग तेरे बल की बयारि लगे
फूटी गज घटा धन घटा ज्यों सरद की।
एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ि चलीं
रही न निसानी कहूँ महि में गरद की।
गौरी गह्यो गिरिपति गनपति गह्यो गौरी
गौरीपति गह्यो पूँछ लपकि बरद की॥४॥
फूट गये हीरा की विकानी कनी हार हाट
काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल को लयो।
टूट गई लंका फूट मिल्यो जो विभोषन है
रावन समेत वंश आसमान को गयो।
कहै कवि गंग दुर्योधन से छत्रधारी
तनक में फूटें तें गुमान वाको नै गयो।
फूटे तें नरद उठि जात बाजी चौसर की
आपुस के फूटे कहु कौन को भलो भयो॥५॥
आवत हौं चले शिव शैलेतें गिरीश जाँचे
मिल्यो हुतो मोहि जहाँ सागर सागर को।
कविन की रसना के पलको पै चढ़ो जात
संग सौहै रवारो प्रताप तेज वर को।
कवि गंग पूछी तुम को हौ कित जैहो, उन
कहयो मोसों हैं सिकै सनेसी ऐसो थर को।
जस मेरो नाम मेरो दसो दिसि काम मेरो
कहियो प्रनाम हौं गुलाम बीरबर को॥६॥
देखत के वृच्छन में दीरघ सुभायमान
कीर चल्यो चाखिये को प्रेम जिय जग्यो है।
लाल फल देखि कै जटान मड़रान लागे
देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है।