बैठी थी सखिन संग पिय को गवन सुन्यो
सुख के समूह में वियोग आग भरकी।
'गंग कहैं त्रिविध सुगंध लै पवन बह्यों
लागतही ताके तन भई बिथा जर की।
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पहं
लागत हो औरैं गति भई मानसर की।
जलचर जरे ओ सेवार जरि छार भया
जल जरि गयो पंक सूख्यों भूमि दरकी॥१॥
नवल नवाब खानखाना जू तिहारो त्रास
भागे देसपती धुनि सुनत निसान की।
गंग कहैं तिनहूँ को रानी राजधानी छाँड़ि
फिरै बिललानी सुधि भूली खान पान की।
तेऊ मिली करिन हरिन मृग बानरन
तिनहूँ की भली भई रच्छा तहाँ प्रान की।
सची जानी करिन भवानी जानो केहारिंन
मृगन कलानिधि कपिन जानी जानकी॥२॥
प्रबल प्रचण्ड बली बैरम के खानखाना
तेरी धाक दीपन दिसाज दह दहकी।
कहै कवि गंग तहाँ भारी सूर वीरन के
उमड़ि अखंड दल प्रलै पौन लहकी।
मच्यो घमसान तहाँ तोप तीर बान चलै
मंडि बलवान किरवान गोपि गहकी।
तुंड काटि मुंड काटि जोसन जिरह काटि
नीमा जामा जीन काटि जिमी आनि ठहकी॥३॥
झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान
एकन तें एक मनो सुखमा जरद की।
पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१९०
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गंग
१३५