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बीरबल
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ये स्वयं ब्रज भाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ा आदर करते थे। केशवदास को एक बार इन्होंने एक छंद पर छः लाख रुपये दिये थे और ओड़छा-नरेश पर एक करोड़ का अर्थ दंड क्षमा करा दिया था।

इनका लिखा कोई ग्रन्थ देखने में नहीं आता। केवल पुस्तकों में कहीं कहीं इनके दो एक छंद मिलते हैं। इनकी कविता बड़ी ही चमत्कारपूर्ण और ललित होती थी। उसका नमूना देखिये—

उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर उरग पै केकिन के
लपटैं लहकि है। केकिन के सुरति हिये की ना कछू है भये
पकी करी केहरि न बोलत बहकि है॥ कहै कवि ब्रह्म बारि
हेरत हरिन फिरैं बैहर बहत बड़े जोर सों जहकि है। तरनि
के तावन तवा सी भई भूमि रही दसहू दिसान में दवारि
सी दहकि हैं॥१॥

एक समै हरि धेनु चरावत बेनु बजावत मञ्जु रसालहि।
डीठि गई चलि मोहन की वृषभानुसुता उर मोतिन मालहि।
सो छवि ब्रह्म लपेटि हिये करसों कर लैकर कंज सनालहि।
ईस के सीस कुसुम्भ की माल मनो पहिरावति व्यालिनि व्यालहि॥२॥

सखि भोर उठी बिन कंचुकी कामिनि कान्हर तें करि
केलि घनी। कवि ब्रह्म भनै छवि देखत ही कहि जात नहीँ
मुखतें मरनी। कुच अग्र नखच्छत कंत दयो सिर नाय
निहारि लियो सजनी। ससिसेखर के सिर से सु मनों
निहुरे ससि लेत कला अपनी॥३॥

पूत कपूत कुलच्छनि नारि लराक परोस लजाय न
सारी। बन्धु कुबुद्धि पुरोहित लम्पट चाकर चोर अतीथ