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मीराबाई
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मेरे मात पिता के सम हो हरि भक्तन सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है से लिखियो समुझाई॥

इसके उत्तर में तुलसी दास ने यह लिख भेजा:—

जाके प्रिय न राम वैदेही।

तजिये ताहि कोटि बैरो संम, यद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनिता, भये सब मङ्गलकारी॥
नातो नेह राम सो मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँख जो फूटै बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परमहित, पूज्य प्रानतें प्यारो।
जासों होय सनेह राम पद एसी मतों हमारो॥

इस उत्तर के पाने पर मीराबाई चित्तौड़ छोड़ कर रात के समय मेड़ता चली आई। वहाँ भी उनका मन न लगा। तब वृंदावन चली गई। वहाँ कुछ समय रह कर फिर द्वारका चली गई। और अन्त में वहीं उन्होंने प्राण भी त्याग किया।

मीराबाई के हृदय में अगाध प्रेम था। उनके पदों से उनकी हार्दिक भक्ति प्रकट होती है।

मीराबाई की कविता राजपूतानी बोली मिश्रित हिन्दी भाषा में हैं। हम यहाँ उनके कुछ पद उद्धृत करते हैं:—

घड़ी एक नहिं आवड़े तुम दरसण बिन मोय।
तुमहो मेरे प्राण जी कासूँ जीवन होय॥
धान न भावै नींद न आवै विरह सतावे मोय।
घायल सी घूमत फिरूँ रे मेरा मेरा दरद न जाणे कोय॥
दिवस तो खाय गमायोरे रैण गमाई सोय।
प्राण गमायो झूलतौ रे नैण गमाई रोय॥