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कविता–कौमुदी
 

घुघुरारि लटैं लटकें मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की।
नेवछावर प्राण करैं तुलसी बलिजाऊँ लला इन बोलन की॥

कीर के कागर ज्यों नृप चीर विभूषन उप्पम अंगनिं पाई।
औध तजी मग बास के रूप ज्यों पंथ के साथ ज्यौं लोगलुगाई॥
संग सुबंधु पुनीत प्रिया मनो धर्म क्रिया धरि देह सोहाई।
राजिव लोचन राम चले तजि बाप को राज बटाउ की नाई॥

पुरते निकसी रघुवीर बधू धरि धीर दये मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की पटु सूख गए मधुराधर वै॥
फिर बूझतिहैं चलनोऽबकितो पिय पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै।
तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अतिचारुचलीजलच्वै॥

जल को गये लक्खन हैं लरिका परिखो पिय छाँह घरी कह्वै ठाढ़े।
पोंछ पसेउ बयारि करौं अरु पाय पखारिहौं भूझुरि डाढ़े॥
तुलसी रघुवीर प्रिया श्रम जानि कै बैठि विलम्ब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेह लख्यो पुलको तन वारिविलोचन बाढ़े॥

सीस जटा उर बाहुँ विशाल विलोचन लाल तिरीछीसी भौंहैं।
तून सरासन बान धरे तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिबार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।
पूछति ग्राम बधू सियसों कहो साँवरो सो सखि रावरो को है॥

कतहुँ विटप भूधर उपारि अरि सैन बरष्षत।
कतहुँ बाजि सो बाजि मर्दि गजराज करष्षत॥