४
बैठी सगुन मनावति माता।
कब अइहैं मेरे बाल कुशल घर कहहु काग फुरि बाता॥
दूध भात की दोनी दैहौं सोने चोंच मढ़ैहौं।
जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहैं॥
अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी।
गनक बुलाइ पाय परि पूछति प्रेम मगन मृदुबानी॥
तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयौ।
प्रभु आगमन सुनत तुलसी मानों मीन मरत जल पायौ॥
कृष्ण गीतावलि
१
मोकहँ झूँठहिँ दोस लगावहिँ।
मैय्या इनहिं बानि पर गृह की नाना युक्ति बनावहि॥
इन्ह के लिये खेलिवो छाँड्यो तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उलहनों आवहिं॥
कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि मिस यहि करि उठि धावहिं।
करहिं आपु शिर धरहि आनके बचन बिरंचि हरावहिं॥
मेरी टेव बूझ हलधर सों संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को ते शिशु मोहि न भावहिं॥
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि कल कीरति तुलसिदास मुनि गावहिं॥
२
अबहिं उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई।
सुनुमैय्या तेरीसौंकरी याकी टेव लरन की सकुच बेचेसि खाई॥
या ब्रज में लरिका घने हौं ही अन्याई।
मुँह लाए मूड़हि चढ़ी अंतहु अहिरिनितोहिँ सुधी कर पाई॥