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कविता–कौमुदी
 

ह्वै अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहि भजै॥
लोलुप भ्रमत गृह पशु ज्यों जहँ तहँ सिरापदत्रान बजै।
तदपि अधम विचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजैं॥
हौं हारयों करि जतम विविध विंध अतिसय प्रबल अजै।
तुलसीदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै॥


अब लौं नसानी अब न नसैहौं।

राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिरि न डसैहौं।
पायों नाम चारु चिन्तामनि उर करते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिँ कसैहौं।
परवस जानि हँस्यो इन इन्द्रिन निज बस ह्वै न हंसैहौं।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं॥


ऐसे राम दीन-हितकारी।

अति कोमल करुनानिधान बिनु कारन पर उपकारी॥
साधन हीन दीन निज अघ बस सिला भई मुनि नारी।
गृहते गवनि परसि पद पावन घोर सापते तारी॥
हिसारत निषाद तामस वपु पसु समान बनचारी।
भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेम बस नहिँ कुल जाति विचारी॥
यद्यपि द्रोह कियो सुरपति सुत कहि न जाइ अतिभारी।
सकल लोक अवलोकी सोकहत सरन गये भय टारी॥
बिहँग योनि आमिष अहार-पर गीध कौन व्रतधारी।
जनक समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति संवारी॥
अधम जाति सवरी जोषित जड़ लोक वेद ते न्यारी।
जानि प्रीति दै दरस कृपानिधि सोउ रघुनाथ उधारी॥
कपि सुग्रीव बन्धु भय व्याकुल आयो सरन पुकारी।