पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१६२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
तुलसी दास
१०७
 

अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ॥१२॥
जान आदि कवि तुलसी नाम प्रभाउ।
उलटा जपत काल ते भये ऋषि राउ॥१३॥
केहि गनती महँ गनती जस वन घास।
राम जपत भये तुलसी तुलसी दास॥१४॥
नाम भरोस नाम बल नाम सनेहु।
जनम जनम रघुनंदन तुलसिहिं देहु॥१५॥


 

तुलसी सतसई

आसन दृढ़ आहार दृढ़ सुमति ज्ञान दृढ़ होइ।
तुलसी बिना उपासना बिन दूलह की जोइ॥१॥
रामचरण अवलंब बिनु परमारथ की आस।
चाहत बारिद बुँद गहि तुलसी उड़न अकास॥२॥
स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एकही ओर।
द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर॥३॥
जहाँ राम तहँ काम नहिँ जहाँ काम नहिँ राम।
तुलसी कबहूँ होत नहिँ रवि रजनी इक ठाम॥४॥
संपति सकल जगत्त की स्वासा सम नहिँ होइ।
सो स्वासा तजि राम पद तुलसी अलग न खोइ॥५॥
तुलसी सो अति चतुरता राम चरन लवलीन।
पर मन पर धन हरन को गनिका परम प्रवीन॥६॥
स्वामी होनो सहज है दुर्लभ होनो दास।
गाडर लाये ऊन को लागी चरन कपास॥७॥
तुलसी सब छल छाँड़ि कै कीजै राम सनेह।
अंतर पति सौं है कहा जिन देखी सब देह॥८॥