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तुलसीदास
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हरु विधि वेगि जनक जड़ताई मति हमार असि देहु सुहाई
बिनु बिचार पन तजि नरनाहू सीय राम कर करइ बियाहू
जग भल कहिहि भाव सब काहू हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू
एहि लालसा मगन सब लोगू वर साँवरों जानकी जोगू
तब बंदी जन जनक बोलाये बिरदावली कहत चलि आये
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा चले भाट हिय हरष न थोरा

बोले बदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन विदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥

नृप-भुज बलविधु सिवधनुराहू गरुअ कठोर विदित सबकाहू
रावन बान महा भट भारे देखि सरासन गवहिँ सिधारे
सोइ पुरारि कोदंड कठोरा राज समाज आजु जेइ तोरा
त्रिभुवन जय समेत बैदेही बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही
सुनि पन सकल भूप अभिलाषै भट मानो अतिसय मनमाषे
परिकर बाँधि उठे अकुलाई चले इष्टदेवन्ह सिर नाई
तम किताकितकिसिवधनुधरहीं उठइ न कोटिभाँतिबल करहीं
जिन्ह के कछु बिचार मनमाहीं चाप समीप महीप न जाहीं

तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहु पार भट बाहु बल अधिक अधिक गरुआइ॥

भूप सहस दस एकाह बारा लगे उठावन टरइ न टारा
डगइ न सभु सरासन कैसे कामी बचन सतोमन जैसे
सब नृप भय जाग उपहासी जैसे बिनु बिराग सन्यासी
कीरांत विजय वीरता भारी चले चापकर सरबस हारी
श्रीहत भये हारि हिय राजा बैठे निजनिज जाइ समाजा
नृपन्ह विलोकि जनक अकुलाने बोले बचन रोष जनु साने
दीप दीप के भूपति नाना आये सुनि हम जो पन ठाना
देव दनुज धरि मनुज सरीरा बिपुल बीर आये रनधीरा