वस्था के उस एक दिन की घटना याद आई होगी जब उन दोनों का वियोग हुआ था।
गोसाईं जी काशी और अयोध्या में बहुत रहा करते थे। परन्तु मथुरा, वृंदावन, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, चित्रकूट, जगन्नाथ जी और सोरों (शूकरक्षेत्र) में भी भ्रमण किया करते थे। काशी जी में इनके कई स्थान प्रसिद्ध हैं, जहाँ ये रहते थे।
अन्य साधु संतों की तरह इनके माहात्म्य की भी बहुत सी कथाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं। कहा जाता कि हनुमानजी की कृपा से इनको श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन हुआ था।
काशी में टोडरमल्ल नाम के एक जमींदार से गोसाईं जी का बड़ा प्रेम था। उनके मरने पर इन्होंने ये दोहे कहे थे—
महतो चारो गाँव को मन को बड़ो महीप।
तुलसी या कलिकाल में अथये टोडर दीप॥
तुलसी राम सनेह को सिर धरि भारी भार।
टोडर काँधा ना दियो सब कहि रहे उतार॥
तुलसी उर थाला विमल टोडर गुन गन बाग।
ये दोउ नयननि सींचिहौं समुझि समुझि अनुराग॥
राम धाम टोडर गये तुलसी भये असोच।
जियबो मीत पुनीत बिनु यही जानि संकोच॥
अकबर के प्रसिद्ध वज़ीर नवाय ख़ानख़ाना (रहीम) से भी गोसाईं जी का बड़ा स्नेह था। आमेर के राजा मानसिंह भी इनका बड़ा आदर करते थे। कहते हैं कि ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि नन्ददासजी तुलसीदास जी के सगे भाई थे। तुलसीदासजी से, सूरदासजी, नाभाजी और केशवदासजी से भी भेंट हुई थी, और मीराबाई के साथ जो पत्र