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कवितावली
[१११]


“कह्यौ मत मातुल बिभीषनहु बार बार,
आँचर पसारि पिय पाँय लै लै हौं परी।
बिदित बिदेहपुर, नाथ! भृगुनाथ गति,
समय सयानी कीन्ही जैसी आय गौं परी॥
बायस, बिराध, खरदूषन, कबंध, बालि,
बैर रघुबीर के न पूरी काहु की परी।
कंत बीस लोचन बिलोकिए कुमंत-फल,
ख्याल लंका लाई कपि राँड़ की सी झोपरी॥”

अर्थ—मामा और विभीषन ने बार-बार सलाह दी और मैं भी अञ्चल पसारकर बार-बार पैरों पर पड़ी। जनकपुर में हे नाथ! परशुराम की अथवा जनकपुरी में तुम्हारी और परशुराम की जो गति हुई सो विदित है। उन्होंने होशियारी की। जैसा समय था वैसा किया। जयन्त, विराध, खर-दूषण, कबन्ध, बालि किसी की भी पूर राम के वैर से न पड़ी। हे कन्त! बुरी सलाह का फल बीसों आँखों से देखो, कि कपि ने लङ्का को राँड़ की सी अर्थात् अनाथ की सी झोपड़ी समझा अर्थात् उसे नष्ट कर दिया, जला दिया।

सवैया
[११२]

‘राम सों साम किये नित है हित, कोमल काज न कीजिए टाँठे।
आपनि सूझि कहाँ, पिय! बूझिए, जूझिवे जोग न ठाहरु नाठे॥
नाथ! सुनी भृगुनाथ-कथा, बलि बालि गये चलि बात के साँठे।
भाइ बिभीषन जाइ मिल्यो प्रभु आइ परे सुनी सायर-काँठे*॥’

अर्थ—रामचन्द्र से सलाह करने से रोज हित है। सीधे काम को टेढ़ा मत करो। हे पिय समझिए, अपनी समझ कहती हूँ कि ठौर ही नाश है, हम लड़ने योग्य नहीं है। हे नाथ! परशुराम की कथा सुनी होगी और बालि बात की बात में साँठे (सेंठे की तरह) चले गये, अथवा अपनी बात साठे रहे अर्थात् पकड़े रहे और


* पाठान्तर—ठाढे, नाढे, साँँहे, काँँटे। आइ परे पुवि सायर काढ़े।