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लङ्काकाण्ड़
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“कीन्हीं छानी छत्री विलु, छोनिप-छपनहार,
कठिन कुवार-पालि बीर बानि जानिकै।
परमकृपाल जो नृपाल लोकपालन पै,
जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै॥
नाक में पिनाक मिसि बामता बिलोकि राम,
रोक्यो परलोक, लोकभारी भ्रम भानि* के।
नाइ दशमाथ महि, जारि बीसहाथ, पिय!
मिलिए पै नाथ रघुनाथ पहिचानि कै॥"

अर्थ—जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रिय के किया था, जिनके हाथ में राजाओं को मारनेवाला कठिन कुठार था, उनकी वीर बानि को जानकर और मन में यह समझ कर भी कि जब इनके पास धनुष होगा तब क्या गति होगी रामचन्द्र ने, जो राजाओं और लोकपालों पर बड़ी दया करनेवाले हैं, पिनाक (महादेव के धनुष) के बहाने से परशुराम की नाक में टेढ़ापन देखकर संसार के भारी भ्रम को मिटा दिया और परलोक की गति को रोक दिया, अथवा जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रिय के कर दिया था जो राजाओं के नाशक थे, बड़े बड़े कुठार को हाथ में लिये थे उनकी वीरगति को जानकर और यह समझकर राम ने, जो राजाओं और लोकपालों पर दया करते हैं, उनका धनुष भी हर लिया था और पिनाक के बहाने से परशुराम की नाक में टेढ़ापन देखकर उनकी गति को रोक दिया था, अथवा जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रियों के कर दिया था ऐसे परशुराम की वीरगति को जानकर उनकी गति को रोक दिया था, ऐसे राजाओं और लोकपालों पर दया करनेवाले रामचन्द्र की जब धनुहाई होगी तब क्या गति होगी, उसका अनुमान करके अर्थात् बिना धनुहाई (धनुष से बाण चलाये) यदि परशुराम की यह गति हुई तो जब तेरे ऊपर वाण चलेंगे तो क्या गति होगी इसका अनुमान करके और लोक के भारी भ्रम को मिटाकर दशों सिर पृथ्वी पर नवाकर और बीसों हाथ जोड़कर निश्चय उनसे मिलिए और रघुनाथ को अपना नाथ पहचानिए अथवा हे नाथ रामचन्द्रजी को पहचान कर उनसे मिलिए।


*पाठान्तर—मानि कै।