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कवितावली

हैं कि डर सहित मन्दोदरी कहती है कि हे मन्दमति पति! मेरी सलाह मान, तब तक जाके जल्दी से मिल जब तक दशरथकुमार रामचन्द्र विरदवाले बाँके वीर रण में क्रोध नहीं करते हैं।

घनाक्षरी

[ १०६ ]

'कानन उजारि, अच्छ मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगर प्रजारयो सो बिलोक्यो बल कीस को।
तुम्हें विद्यमान जातुधान मंडली में
कपि कोपि राप्यो पाँउ, सो प्रभाव तुलसीस को॥
कंत! सुनु मंत, कुल अंत किये अंत हानि,
हातो* कीजै हीय तें भरोसो भुज बीस को।
तै लौं मिलु बेगि जौलौं चाप न चढ़ायो राम,
रोषि बान काढ़यो ना दलैया दससीस को'॥

अर्थ―बन को उजाड़कर अक्ष को मारकर सेना को धूल सा उड़ा दिया, मगर को जला दिया वह बल बन्दर का देखा। तुम्हारे होते हुए राक्षसों की सभा में बन्दर ने क्रोध से पैर रोपा। यह प्रभाव भी तुलसी के प्रभु (रामचन्द्र) का था। हे कन्त! मन्त्र (सलाह) सुन, कुल का अन्त करने से अन्त में हानि ही होगी। हाय तात! बीस भुजाओं का बल आप हृदय में किये हैं? अथवा बीस भुजाओं का बल हृदय से निकाल डालिए अर्थात् यह प्रापका भ्रम है। तब तक जल्दी से जाकर मिलिए जब तक रामचन्द्र ने क्रोध करके धनुष नहीं चढ़ाया है और रावण को मारनेवाला बाण नहीं निकाला है।

[ १०७ ]

“पवन को† पूत देखौ, दूत बीर बाँकुरो, जो
बंक गढ़ लंक से ढका ढकेलि ढाहिगो।



*पाठान्तर―हातो कीजै हिये ते। (२) हाय तात न कीजै।
†पाठान्तर―के।