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कवितावली

एक ही बिसिष बस भयो बीर बांकुरो जो,
तोह है बिदित बल महाबली बालि के॥
तुलसी सहत हित, मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फल पैहै तू कुचालि को।
बीर-करि-केसरी कुठार-पानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़!* तोसो गनै धालिको॥

अर्थ―जिसने खर-दूषण, विराध, त्रिशिरा, कबन्ध मारे और विकराल तालों को अथवा सप्त तालों को जो बड़े विशाल रहे वेध दिया, यह कल का तमाशा है। एक ही बाण में बड़े-बड़े वीर वश हुए (मारे गये), सो बड़े बली बालि का बल तुझे भी ज्ञात है (उसे भी रामचन्द्रजी ने मार डाला)। तुलसी कहते हैं कि अंगद ने कहा कि मैं भलाई की बात कहता हूँ, पर तू कुछ नहीं डरता, अथवा मैं तेरी भलाई की बात कहता हूँ इसलिए मुझे कुछ भय नहीं है, मेरा क्या जावेगा, तू ही अपनी कुचालि का फल पावेगा। वीर रूप हाथियों को शेर, कुठार हाथ में रखनेवाले (परशुरामजी) ने हार मान ली, तो तेरी क्या गति है। हे मूर्ख! तुम्हारे ऐसों को कौन गिनता है।

शब्दार्थ―विड़ = मूर्ख।

सवैया

[ ९६ ]

तोसों कहौं दसकंधर रे, रघुनाथ-बिरोध न कीजिय बौरे।
बालि बली खरदूषन और अनेक गिरे जेजे भीति में दौरे॥
ऐसिय हाल भई तेहि धौं, नतु लै मिलु सीय चहे सुख जौरे।
राम के रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकर सौरे॥

अर्थ―तुझसे ही कहता हूँ ऐ बावले रावण! राम से वैर न कर; बली बालि और खर-दूषण और बहुत से जो इस डर की जगह दौड़कर गये अथवा दीवाल में दौड़े वह सब गिरे (नाश हो गये)। यही हाल तेरा होगा, नहीं तो जो सुख चाहता है तो सीताजी को लेकर मिल। राम के क्रोध करने पर, तुलसीदास कहते हैं कि, सौ ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं रख सकेंगे।


  • पाठान्तर―बटे = वृक्ष बडे = दब गया।