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कवितावली

समुद्र बाँधा गया है। बड़े दृढ़ किले में नहते हुए भी, और रावण से अद्भुत नायक के होते भी, अथवा लङ्का को अकृत (स्वयं) विश्वकर्मा कृत जालते हुए भी, कोई लङ्का में राँधा भात नहीं खाता है अर्थात् सब अत्यन्त भयभीत हैं।

सवैया

[ ८९ ]

बिवजयी भृगुनायक से बिनु हाथ भये हनि हाथ-हजारी।
बातुल मातुल की न सुनी सिख, का तुलसी कपि लंक न जारी?
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिले, फिरि बूमिहै को गज कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन बात बड़ो से बड़ोई बजारी॥

अर्थ―विश्व को जीतनेवाले परशुराम से सैकड़ों वीर हाथ मारकर बिना हाथ के बलहीन हुए अथवा हाथ-हजारी (हजार योधाओं के पतियों) को मारनेवाले परशुराम भी बलहीन हुए, अथवा हाथ-हजारी (सहस्रबाहु) को मारनेवाले परशुराम भी बलहीन हुए। वाई के मारे अचेत रावण ने मामा की सीख को न सुना तो क्या बन्दर ने लङ्का को न जला दिया। अब भी राम से मिलने में भलाई है। फिर क्या कोई पूछेगा कि गज कौन था और ग्राह कौन? अर्थात् दोनों के भेद करनेवाले राम ही हैं अथवा फिर कौन पूछेगा कि गज कौन और गजारि कौन? सब छोटे बड़े एक साथ मारे जावेंगे अथवा नहीं तो मालूम पड़ेगा कि गज कौन और गजारि कौन? अर्थात् बड़ा बलवान् दोनों में कौन है। उसकी बड़ी महिमा है, उसके काम बड़े हैं, जन (आदमियों) में उसकी बात बड़ी है, परन्तु वह रावण बजारी (नंगा, बेहया) बड़ा है। अथवा बजारी (दलाल) कोई कितना भी कहे अपना मतलब न छोड़े।

[ ९० ]

जब पाहन भे बनबाहन से, उत्तरे वनरा 'जय*राम' रढ़े।
तुलसी लिये सैल-सिला सब सोहत, सागर ज्यों बलवारि बढ़े॥
करि कोप करैं रघुबीर को आयसु, कौतुक ही गढ़ कूदि चढ़े।
चतुरंग चमू पल में दलिकै रन रावन राढ़† के हाड़‡ गढ़े॥



*पाठान्तर―जै जै।
†पाठान्तर―राड़।
‡पाठान्तर―सुहाढ़।