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“देखौं राम कैसे” कहि, कैद किये, किये हिये “हूजिए कृपालु, हनुमान जू! दयाल हो।”
ताही समय फैलि गये, कोटि-कोटि कपि नए, लौंचें तन खैंचे चीर, भयो यो विहाल हो॥
फोरैं कोट, मारैं चोट, किये डारैं लोट-पोट, लीजै कौन ओट जाय, मानो प्रलयकाल हो।
भई तब आँखें, दुखसागर को चाखें, अब वेही हमें राखें, भाखैं, वारौं धन माल हो॥९॥

आइ पाइ लिये “तुम दिये हम प्रान पावैं” आपु समुझावैं “करामाति नेक लीजिए।”
लाज दबि गयो नृप, तब राखि लयो, कह्यो “भयो घर राम जू को वेगि छोड़ दीजिए॥”
सुनि तजि दियो और कह्यो लैकै कोट नयो, अबहुँ न रहै कोऊ वामें, तन छीजिए।
कासी जाय, वृन्दावन आप मिले नाभा जू सों, सुन्यो हो कवित्त विज रीझ मत्ति भीजिए॥१०॥

मदनगोपाल जू को दरशन करि कही “सही राम इष्ट मेरे दृग भाव पागी है।”
वैसाई सरूप कियो, दियो लै दिखाह रूप, मनु अनुरूप छवि देखि नीकी लागी है॥
काहू कह्यो “कृष्णा अवतारी जू प्रशंस महा, राम अंस” सुनि बोले “मति अनुरागी है।
दशरथ-सुत जानों, सुंंदर अनुप मानो, ईसता बताई रति कोटि जुग जागी है”॥११॥

इस टीका के पढ़ने और प्रियादासजी के स्वयं लिखने से ज्ञात होता है कि प्रियादासजी ने इन छन्दों में सुनी-सुनाई बातें भर दी हैं। वे स्वयं लिखते हैं—

इनही के दास दास दास प्रियादास जानो तिन लै बखानो मानो टीका सुखदाई है।
गोवर्धननाथ जू के हाथ मन परथो ज्ञाको करयो बास वृन्दावन लीला मिलि गाई है॥
मति अनुसार कह्यो लह्यो मुख सन्तन के अन्त कौन पाचै जोई गावै हिय लाई है।
घट बढ़ि जानि अपराध मेरो क्षमा कीजै साधु गुनग्राही यह मानि कै सुनाई है॥

सन्तों के मुख से जो कुछ सुना था वही प्रियादासजी ने लिख दिया है। साधुओं के सम्बन्ध में ऐसी अनेक गाथाएँ प्रचलित हो जाया करती हैं। उनको कहाँ तक प्रामाणिक माना जा सकता है, यह विचारणीय है। प्रियादासजी के अनुसार ही “भक्ति विश्वास जाके ताही को” इनका प्रकाश होता है। इतिहास या जीवनी के प्रमाण ढूँढ़नेवालों को यह आधार बहुत ही कमजोर दिखाई देता है।

(आ) संवत् १६६९ में तुलसीदासजी ने एक टोडर नामी व्यक्ति के पौत्रों के झगड़े की पञ्चायत की थी। इससे यह सिद्ध है कि संवत् १६६९ में तुलसीदासजी विद्यमान थे।

अन्तरङ्ग वर्णन

तुलसीदासजो विरक्त थे। उन्होंने नरकाव्य नहीं रचा। न तो आपने किसी राजा का आश्रय लिया, न किसी आश्रयदाता का वर्णन ही किसी भाँति किया, यद्यपि