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सुन्दरकाण्ड

राम की रजाय तें रसायनी समीरसूनु
उतरि पयोधि पार सोधि सरवाँक सो।
जातुधान बुट* पुटपाक लंक जातरूप,
रतन जतन† जारि किया है मृगाँक सो॥

अर्थ―विराट के उर में रावण का सा राजरोग दिन प्रति बढ़ते देखकर सब (देवता) विकल थे और सब सुख रंचक सा (न कुछ) था। सुर, सिद्ध और मुनि भाँति भाँति का उपाय करके हार गये परन्तु शोक न मिटा, न रोग किंचित् मात्र भी घटा। राम की आज्ञा से रसायन बनानेवाले हनुमान ने समुद्र पार करके और चारों ओर से शोध के राक्षसों की बूटी से पुटपाक में सुवर्ण और रमजटित लङ्का को यन से जलाकर मृगाङ्क बना दिया।

शब्दार्थ―राँक = रंक, भिखारी, मिट्टी, रंचक। मनाक = ज़रा सा भी। सर्व आंक = सब तरह। जातरूप = सोना। मुगाङ्क = सोने की भस्म, प्रायः राजरोगों में दी जाती है।

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जारि बारि कै विधूम, बारिधि बुताइ लूम,
नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़े कर जोरि कै।
"मातु! कृपा कीजै, सहिदानि दीजै", सुनि सीय
दीन्ही है असीस चारु चूड़ामनि छोरि कै॥
"कहा कहौं, तात! देखे जात ज्यों बिहात‡ दिन,
बड़ी अवलंब ही सो चले तुम तोरि कै"।
तुलसी सनीर नैन, नेह सों सिथिल बैन,
बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै॥

अर्थ―लङ्का को जलाकर धुँवा से रहित कर (कोयला करके), पूँछ को समुद्र में बुझाकर [ सीता के ] पैरों पर माथा नवाकर के हनुमान हाथ जोड़ कै खड़ा हुआ। हे माँ, कृपा करो, कोई चिन्हारी (निशानी) दो। यह सुनकर सीता ने आशीष दी और



*पाठान्तर―बुट-भूप बुट पुटपाक।
†जिटित
‡पाठान्तर―विहान।