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सुन्दरकाण्ड
[५७]


बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानों,
लंक लीलिवे को काल रसना पसारी है।
कैधौं व्योमवीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उधारी है॥
‘तुलसी’ सुरेस-चाप, कैधौं दामिनी-कलाप,
कैधों चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखैं जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
“कानन उजारयो अब नगर प्रजारी है”॥

अर्थ—पूँँछ से बड़ी विकराल आग की ज्वालाएँ निकल रही हैं, मानो लङ्का लील जाने को काल ने अपनी जीभ निकाली है, या मानो आकाश-मार्ग (आकाशगङ्गा) में बहुत से पुच्छल तारे भरे हैं, या वीररसधारी वीरों ने तलवार म्यान से बाहर कर रक्खी है। हे तुलसी! (यह जान पड़ता है मानो) इन्द्र का धनुष है, वा विजली चमकती है, या मेरु से आग की धार बह निकली है। राक्षस देख रहे हैं और राक्षसियाँ घबराकर कह रही हैं कि तब बाग ही उजाड़ा था अब लंका जला दी।

शब्दार्थ—बालधी= पूँँछ। व्योम= आकाश। बीथिका= रास्ता, गली। धूम-केतु= पुच्छल तारे।

[५८]


जहाँ तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
“जरत निकेत धाओ धाओ लागि आगि रे।
कहाँ तात, मात, भ्रात, भगिनी, भामिनी, भाभी,
ढोटे छोटे छोहरा अभागे भारे भागि रे॥
हाथी छोरो, घोरा छोरो, महिष वृषभ छोरो,
छेरी छोरो, सोवै सो जगाओ जागि जागि रे”।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं,
“बार बार कह्यो पिय कपि सों न लागि रे”॥