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बल्कल बसन, धनु बान पानि, तून कटि,
रूप के निधान, घन-दामिनी बरन हैं।
तुलसी सुतीय संग सहज सुहाये अंग,
नवल साँवल हू ते कोमल चरन हैं॥
औरै सो बसंत, औरै रति, औरै रतिपति,
मूरति बिलोके तन मन के हरन हैं।
तापस बेषै बनाइ, पथिक पथै सुहाइ,
चले लोक-लोचननि सुफल करन हैं॥

अर्थ—छाल के कपड़े पहने, धनुष-बाण हाथ में लिये, तरकस कमर पर रक्खे, रूप के घर, बादल और बिजली के से रूपवन्त हैं अर्थात् एक साँवले दूसरे गोरे हैं। हे तुलसी! सुन्दर स्त्री सङ्ग में है जिनका शरीर स्वाभाविक तौर पर शोभा पानेवाला है और चरण नये कमल से भी कोमल हैं। दूसरे वसन्त, दूसरे रति और कामदेव मालूम पड़ते हैं। सूरत देखते ही तन मन के हरनेवाले हैं। तपस्वियों का सा रूप बनाये पथिक बनकर मार्ग में शोभायमान हैं, मानो संसार के नेत्रों को सुफल करने चले हैं।

शब्दार्थ—तून= तरकस। दामिनी= बिजली। बरन= रंग।

सवैया
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बनिता बनी श्यामल गौर के बीच,बिलोकहु,री सखी!मोहिँ सी ह्वै।
मग जोग न, कोमल क्यों चलिहैं, सकुचात मही पद पंकज छवै॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकी पुलकी तन औ चले लोचन च्चै।
सब भाँति मनोहर मोहन रूप, अनूप हैं भूप के बालक द्वै॥

अर्थ—साँवले और गोरे कुमारों के बीच में स्त्री (सीता) बनी (शोभायमान) हैं। हे सखी! मुझसी विह्वल होकर देखो (अथवा मोही मोहित सी होकर देखो अर्थात् देखते ही माहित हो)। मार्ग के योग्य ये नहीं हैं, अति कोमल हैं, ये क्योकर मार्ग चलेंगे? इनके कमल से पैरों को छूकर पृथ्वी शरमाई जाती है।