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कवितावली


साँवरे गोरे के बीच भामिनी सुदामिनी सी,
मुनि पट धरे, उर फूलनि के हार हैं॥
करनि शरासन सिलीमुख, निषंग कटि,
अतिही अनूप काहू भूप के कुमार हैं।
तुलसी बिलोकि कै तिलोक के तिलक तीनि,
रहे नर-नारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं॥

अर्थ—कमल से नेत्र हैं, कमल अथवा चन्द्रमा सा मुख है, शिर पर जटा है, यौवन को उमङ्ग के सब अङ्ग शरीर पर उदय हुए हैं अर्थात् निकल रहे हैं, अथवा यौवन की उमङ्ग के उदय से सब अङ्ग उदार हैं अर्थात् चमक रहे हैं। साँवरे (राम) और गोरे (लक्ष्मण) के बीच में एक स्त्री बिजली सी है। मुनियों के से कपड़े और फूलों के हार पहने (शोभायमान) है। हाथों में धनुष बाण, कटि पर तरकस लिये बड़े सुन्दर किसी राजा के लड़के हैं। तुलसीदास तीनों लोकों के तिलक तीनों को देखकर नर और नारी चित्रसारी के चित्र के से देखते रह गये अर्थात् अचल हो रहे।

शब्दार्थ—उदार= बड़े। भामिनी= स्त्री। सुदामिनी= बिजली। शिलीमुख= बाण। चितेरे= तस्वीर में खिंचे। चित्रसार= चित्रशाला।

[३७]


आगे सोहै साँवरो कुँवर, गोरो पाछे पाछे,
आछे मुनि-वेष धरे लाजत अनंग हैं।
बान बिसिषासन, बसन बन ही के कटि
कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं॥
साथ निसि-नाथ-मुखी पाथनाथ-नन्दिनी सी,
तुलसी बिलोके चित्त लाइ लेत संग हैं।
आँनद उमंग मन, यौवन उमंग तन,
रूप की उमंग उमगत अंग अंग हैं॥