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अयोध्याकाण्ड

अथवा कण मेरु सम हो जाता है और समुद्र बकरी के खुर के निशान सम हो जाता है अथवा अजाखुर बढ़कर समुद्र हो जाता है; है तुलसी! जिसके कमल रूपों पैरों से ऐसी नदी (गङ्गा) उत्पन्न हुई है जो गाढ़े पापों को हरती है, वे ही प्रमु स्वयं नदी के पार करने को कगर पर ग्बड़े नाव माँग रहे हैं।

शब्दार्थ―अजाखुर = अजा (बकरी)+खुर, खुर से जो छोटा सा निशान भट्टी पर बन जाता है। तटिनी = नदी। स्वै = स्वयं।

[ २८ ]

एहि घाट तेँ थोरिक दरि अहै कटिलौं जलथाह देखाइहौं जू।
परसे पगधूरि तरै* तरनी, घरनी घर क्यों समुभाइहौं जू?॥
तुलसी अवलंब न और कछू, लरिका केहि भाँति जिनाइहौं जू।
वरु मारिये मोहिं, विना पग धोये हैं। नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥

अर्थ―केवट कहता है कि इस घाट से थोड़ी ही दूर पर कमर तक पानी है; वह स्थल मैं आपको बतला दूँगा। आपके पैरों की धूल छू जाने से नाव तर जायगी (अहिल्या की तरह), फिर मैं घर जाकर स्त्री को क्या समझाऊँगा! मुझे और कुछ आधार नहीं है, फिर लड़कों को किस तरह जिलाऊँगा? चाहे मुझे मार क्यों न डालिए, बिना पैर धोये नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।

शब्दार्थ―तरनी = नाव। घरनी = स्त्री। बरु = चाहे।

[ २९ ]

रावरे दोष न पायँन को, पगधूरि को भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बन-बाहन काठ को कोमल है, जल खाइ रहा है॥
पावन पायँ पखारि के नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है?।
तुलसी सुनि केवट के वर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है॥

अर्थ―न तो आपका दोष है और न आपके पैरों का। पैरों की धूल का ही बड़ा महत्त्व है। यह जल में चलनेवाली लकड़ी की नाव पत्थर की अपेक्षा कोमल है। तिस पर भी पानी उसे खा गया है अर्थात् जीर्ण हो गई है। पवित्र पैरों को धोकर नाव


  • पाठान्तर―तवै।