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अयोध्याकाण्ड

पिता और प्यारे लोग, सबको सहज प्रोनि और सगाई ( रिश्तेदारी आपसदारी ) से आदर करके छोड़ दिया। स्त्री और अच्छे भाई को साथ लेकर अवध में दो दिन की सी मंहमानी खाकर श्रीरामचन्द्रजी, जिनक कमल के से नेत्र हैं, बाप के राज्य को पथिक की तरह छोड़कर चल दिये।

शब्दार्थ―लम्यो = शोभावमान हुआ। पहुनाई = महमानधारी। हुतं = थे।

घनाक्षरी

[ २५ ]

सिथिल सनेह कहै कौसिला सुमित्राजू सों,
मैं न लखी सौति; साखी! भगिनी ज्यौं सेई है।
कहैं मोहि मैया; कहौं "मैं न मैया, भरत की
बलैया लैहौं, भैया! तेरी मैया कैकेई है"॥
तुलसी सरल भाय रघुराय माय मानी,
काय मन वानी हूँ न जानी कै मतेई है।
बाम विधि मेरो सुग्ध सिरिससुमन सम,
ताको छल-छुरी कोह*-कुलिस लै टेई है॥

अर्थ―प्रीति से शिथिल हुई कौशल्याजी सुमित्राजी से कहती हैं कि मैंने कैकेयी को सौति की तरह नहीं माना, बल्कि हे सखी! बहिन की तरह उसकी सेवा की है। जब मुझसे रामजी मैया कहते थे तो मैं कहती थी कि मैं तुम्हारी माँ नहीं हूँ, भरत की माँ हूँ, तेरी बलैया लूँगी, भैया! तेरी मैया कैकेयी है। हे तुलसी, रामचन्द्र ने स्वाभाविक तौर पर उसे माँ समझा और तन मन वाणी किसी तरह से न जाना कि मता (सलाह) यह है अथवा यह न जाना कि कैकेयी विमाता है (दूसरी माँ) है। मेरा ब्रह्मा ही टेढ़ा है कि जिसने मेरे सिरस के फूल के से कोमल सुख के लिये छल की छुरी को वज्र (पत्थर) पर तेज़ किया अथवा छल छुरी को क्रोध के पत्थर पर तेज़ किया।

शब्दार्थ―कै मतगी = की+मतेथी = कि+मता+ई = कि मता यह है अथवा कि+मतेयी = कि+विमाता। टेई = तेज किया।


  • पाठान्तर―को।