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कवितावली


तुलसी मुदितमन जनक नगरजन,
झाँकतीं, झरोखे लागीं सोभा रानी पावतीं।
मनहुँ चकोरीं चारु बैठीं निज निज नीड़,
चंद की किरन पीवैं पलकैं न लावतीं॥

अर्थ—सोने के थारों में दूब, दही, गोरोचन भर-भर के आरती बना-बनाकर सुन्दर स्त्रियाँ गाती हुई चली। जानकी के कमल से हाथ जयमाल लिये शोभायमान थे। और सखियाँ सिखाती थीं कि रामचन्द्रजी को पहिनावो। तुलसीदासजी कहते हैं कि जनक नगर के लोग मन में प्रसन्न थे, और रानी झरोखों में लगी (खड़ी) झाँकती शोभा पा रही थीं, मानों सुन्दर चकोरी अपने अपने नीड़ (अड्डे) पर बैठी हुई चन्द्रमा की किरण पी रही थीं और पलक भी नहीं झपकाती थीं।

शब्दार्थ—रोचना= गोरोचन। कनक= सोना। कंज= कमल। घारु= सुदर।

[१४]


नगर निसान बर बाजैं, ब्योम दुंदुभी,
बिमान चढ़ि गान कै कै सुरनारि नाचहीं।
जय जय तिहूँ पुर, जयमाल रामउर,
बरसैं सुमन सुर, रूरे रूप राचहीं॥
जनक को पन जयो, सबको भावतो भयो,
तुलसी मुदित रोम रोम मोद माचहीं।
साँवरो किसोर, गोरी सोभा पर तृन तोरि,
“जोरी जियो जुग जुग” सखोजन जाँचहीं॥

अर्थ—नगर में सुन्दर नगाड़े बज रहे थे और आकाश में दुन्दुमियाँ बजती थीं। देवताओं की स्त्रियाँ विमानों पर चढ़ीं गा-गाकर नाच रही थीं। तीनों लोकों में जय-जय मच गया; जयमाल रामचन्द्र के गले में शोभायमान थी; देवता लोग सुन्दर रूप धरे फूलों की वर्षा कर रहे थे। जनकजी का प्रण रह गया; सबके मन की हो गई। तुलसीदास प्रसन्न थे। उनके रोम-रोम में हर्ष भरा था। साँवले लड़के और गोरी वधू पर तिनका वोड़ (नज़र न लगने देने के लिए) स्त्रियाँ यही माँगती थीं कि यह जोड़ी जुग-जुग जिये।