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कवितावली


हहरात= हाय हाय करते हुए। भमरि= भयभीत होकर, घबराकर। मीचु मई= मृत्युमय। मीचु= (स०) मृत्यु, (प्रा० मिच्चु)। पाहि= रक्षा करो।

भवार्थ— काशी मानो एक तालाब है, वहाँ के स्त्री पुरुष मानो उस तालाब के जलजतु हैं, वे जलजतु महामारी रूपी माजा (वर्षांतऋतु के आरभ का जल) के पानी से व्याकुल हो गए हैं, और उछलते हुए पानी के ऊपर उत्तराते हुए हाय हाय करके मरे जाते हैं, और कोई घबराकर भाग रहे हैं। जल थल सब मृत्युमय है, देवता भी दया नहीं करते, राजाओं का चित्त भी कृपापूर्ण नहीं है, क्योकि काशी में नित्य ही नई नई अनीति बढ़़ रही है। हे रामचंद्रजी, तुम्ही रक्षा करो। हे रामदूत हनुमानजी, तुम्ही रक्षा करो क्योंकि तुमने तो रामचंद्रजी की भी बिगड़ी बात सुधार ली थी (रामचंद्रजी के भाई लक्ष्मण को सजीवन बूटी लाकर जिलाया था)।

मूल—एक तो कराल कलिकाल सूलमूल ता में,
कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की।
बेद धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भए,
साधु सीद्यमान, जानि रीति पाप-पीन की।
दूबरे को दूसरो न द्वार, राम दयाधाम।
रावरी ही गति बल बिभव-विहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहिं,
महाराज आजु जौ न देत दादि दीन की॥७७॥

शब्दार्थ— सूलमूल= दुखों का मूल कारण। कोढ़ में की खाजु सी= (कहावत) एक तो कोढ़ स्वय एक भयानक और कष्टप्रद रोग हैं, अगर उसमें खाज भी हो जाय तो कष्ट का क्या ठिकाना; अर्थात् और भी अधिक दुःख देनेवाला। सनीचरी है भीन की= मीन राशि पर शनैश्चर की स्थिति की दशा। इसका फल है राजा प्रजा दोनों का नाश। यह योग संवत् १६६६ के आरभ से १६७१ के मध्य तक पढ़ा था। सीद्यमान= कष्ट पाते हैं। जानि रीति पाप पीन की= इसे बड़े भारी दुष्ट पाप का फल ही जानो। दूबरे= (सं०) दुर्बल। द्वार= गति, शरण। विभव= ऐश्वर्थ। बिरुद= यश। जौ= अगर उसमें अगार। दादि न देत= न्याय नहीं करते हो तो।