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उत्तरकांंड


फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल पल,
खाती दीपमालिका, उठाइयत सूप हैं॥१७१॥

शब्दार्थ—बासी= रहनेवाले। काल-नाथ= कालभैरवजी। दडकारी= दड देनेवाले। दंडपानि= दंडपाणिभैरवजी। गनप= गणेशजी। अमित= अनेक। तहॉऊ= वहा भी। कैधौं= या तो, अथवा। मूढ़= मूर्ख कलियुग। फलै फूलै= सफल मनोरथ होते हैं। सीदैं= कृष्ट पाते हैं। पल पल= हर घड़ी। ‘खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं’= (कहावत है) दिवाली की रात भर तो घी तेल दियों में भरा जाता है पर प्रभात होते समय सूप खटखटाए जाते हैं, अर्थात् दुष्टता तो करे दुष्ट यौर वे ही मौज उड़ावे पर दुःख पावे सज्जन।

भावार्थ—काशी की बड़ाई लोक और वेद दोनो मे विदित है। यहाँ के निवासी पुरुष और स्त्री शिव पार्वतीजी के स्वरूप हैं। कालभैरवजी के समान तो यहाँ के कोतवाल हैं, दडपाणि भैरवजी के समान यहॉदंड देनेवाले जज हैं, और गणेशजी के समाने अनेक अद्वितीय सभासद हैं। यहाँ भी कुचालि कलियुग ने अपनी कुरीति को चलाया (बड़ा आश्चर्य है) अथवा मूर्ख कलियुग यह नहीं जानता कि यहाँ के राजा भूतनाथ, शिवजी) हैं। (उनका प्रभाव उसे ज्ञात नहीं हैं) क्योंकि दुर्जन तो मौज उड़ाते हैं, और सज्जन लोग हर घड़ी दुःख पा रहे हैं। मानो वही कहावत है कि घी तो खाय दीपमालिका और पीटा जाय सुप।

अलंकार—छेकोक्ति।

 
मूल—पंचकोस पुन्यकोस, स्वारथ परारथ को,
जानि आप आपने सुधास बास दियो है।
नीच नरनारि ने सँभारि सकैं अदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न किया है।
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोष में भरोसो एक, आसुतोष कहि जात,
विकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥१७२॥