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उत्तरकांंड


दुख-दोष-दाह दावानल= दुःख, दोष और ताप को भस्म करने के लिए दावाग्नि के समान। दूजो= दूसरा। सूलपानि= हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, शिवजी।

भावार्थ—महादेवजी भिक्षुक से षोडशोषचार पूजा का एक भी अङ्ग नहीं चाहते। देना ही उनकी स्वाभाविक आदत है, इसे निश्चय जानिए। अगर शिवजी पर चार बूँँदे जल की छिड़का दो तो वे उसे सच्ची सेवा मान कर ग्ररण करते हैं और धर्मार्थकाममोक्ष चारों फल दे देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि अगर संसार के स्वामी शिवजी का भरोसा नही है, तो चाहे करोड़ो कष्ट उठाओ, सब जगह की धूल छान कर मर जाओ, तो भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा। दारिद्र्य को नाश करनेवाला , दुःख, दोष और सरापो को मिटानेवाला दानी और दयालु संसार में शिवजी के समान दूसरा नहीं है।

मूल—काहे को अनेक देव सेवत, जागै मसान,
खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रें!
काहे को उपाय कोटि करत मरत धाय,
जाचत नरेस देस देस के, अचेत रे!
‘तुलसी’ प्रतीति बितु त्यागै तै प्रयाग ततु,
घन ही के हेतु दान देत कुरु-खेत रे!
पात द्वै धतूरे के दै, भोरे कै भवेस सों
सुरेस हू की संपदा सुभाय सों न लेत रे॥१६२॥

शब्दार्थ—जागै मसान= मसान जगाना, अमावास्या की रात को श्मशान में उसी दिन के मरे हुए मनुष्य की लाश पर वैठ कर मत्र जपते हैं। इसमें अनेक बाधाएँ होती हैं। पर मत्र सिद्ध होने पर यथेष्ट फल मिलता है। अपान= अपनापन, आत्मसंमान। भोर कै= भोला भाला चना कर। तै= तू। भवेस= सखार के स्वामी, शिवजी।

भावार्थ—अरे मूर्ख, तू अनेक देवतो की सेवा क्यों करता फिरता है? क्यों मसान जगाता है? क्यो आत्मसमान खोता है? और क्यों हठ करके प्रेत बनता है? अरे वेसमझ! तू क्यों करोड़ो उपाय करता हुआ इधर उधर दौड़ कर मरता है और देश देश के राजाओ से क्यों माँँगता फिरता है?