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कवितावली

अर्थ―कमल से हाथों में पहुँची और पैरों में घुँघुरू थे और हृदय में अच्छी मणियों की माला बनी थी। नये ( कोमल ) नीले अङ्ग पीली मँगुलियाँ में झलकते थे। राजा गोद में लिये अति प्रसन्न हो रहे थे। उसका मुख कमल सा था और रूप ( सुंदरता ) के मकरन्द को आनन्दित होकर नयन रूपी भृङ्ग ( भौरे ) पी रहे थे। यदि ऐसा बालक मन में न वसा, तो हे तुलसी! इस जग में जीने का क्या फल है?

शब्दार्थ―नूपुर = घँघुरू। मरन्द = पुष्पों का रस, मकरन्द। भृङ्ग = भौरा। कंज = कमल। मंजु सुदर। कलेबर = शरीर। अराविंद = कमल।

[ ३ ]

तन की दुति स्याम सरोरुह, लोचन कंज की मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे, छवि भूरि अनंग की दूरि धरैं*॥
दमकैँ दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों, किलकै कल बाल-विनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं॥

अर्थ―शरीर की ज्योति नीले कमल की सुन्दरता को हरती थी, और नयन कमलों की शोभा को हरते थे। अति सुन्दर धूल-भरे शोभायमान थे और सब कामदेव की छवि को दूर रखते थे, अर्थात् उनकी शोभा कामदेव से भी बढ़कर थी। छोटे छोटे दाँत बिजली की ज्योति से चमकते थे, (लड़के) किलकते थे, और बाल-विनोद (लड़कों का सा खेल) कर रहे थे। (ऐसे) राजा दशरथ के चारों पुत्र तुलसी के मनरूपी मन्दिर में सदा विहार करैं।

शब्दार्थ―तन = शरीर। दुति = प्रकाश। सरोरुह = कमल। मंजुलताई = सुंंदरता। अनंग = कामदेव। कल = मीठा शब्द।

[ ४ ]

कबहूँ ससि माँगत पारि करैं, कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइ कै नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं॥
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै, पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी मन मंदिर में बिहरैं॥†

अर्थ―कभी अड़कर चन्द्रमा माँगते हैं, कभी (अपनी) परछाहीं देखकर डरते हैं, और कभी हाथ की ताली बजा-बजाकर नाचते हैं। इससे सब माताओं का मन खुश


*पाठान्तर―करैं। †कुछ प्रतियों में यह चन्द नहीं मिलता है।