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उत्तरकांंडा


नहीं मिटती। कही श्राद्ध या विवाह या कोई उत्सव तो नहीं, इसकी टोह में लगा रहता है। अस्थिर होकर इधर-उधर फ़िरता रहता है और ढोल औंर तुरी के शब्द सुनकर पूछने लगता है कि यहाॅ कोई उत्सव तो नहीं जिसमें कुछ खाने को मिले। अत्यंत प्यासा होने पर भी उसे पीने को जल नहीं मिलता, अतिशय भूखा होने पर भी उसे खाने को चार दाने चने के नही मिलते। वह चाहता तो है अपरिमित भोजन पर उसे घुरविनिया करने पर भी एक दाना दाल का भी नहीं मिलता। ऐसा आदमी तभी तक शोक का घर है और दुःख के बोझ से दना हुआ रहता है जब तक उस पर भवानी अन्नपूर्णाजी कृपा न करें।

मूल—
(छप्पय)

भस्म अंग, मर्दन अनंग, संत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अधग भूमन भुजंगबर।
मुंडमाल बिघुवाल भाल, डमरू कपाल कर।
बिबुध-बृन्द-नवकुरुद-चद, सुखकंद, सूलधर।
त्रिपुरारि त्रिलोचत दिग्बसन विषभोजन भव-भय-हरन।
कह ‘तुलसिदास’ सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥१४६॥

शब्दार्थ—मर्दन= नाश करनेवाले। अनग= कामदेव। सतत असग= निरंतर एकात में रहनेवाले। हर= सहारकर्ता। गिरिजा= गिरि (हिमालय) की पुत्री पार्वतीजी। अधग= (सं० अर्द्धङ्ग) आधे (बाम) अग मे। भुजरावर= श्रष्ठ सॉप। बाल-विधु= द्वितीया का चन्द्रमा। भाल= मस्तक पर। डमरू= शिवजी का बाजा। कपाल= खप्पर। बिबुध-वृन्द-नवकुमुद्र-चद= देव-समूह रूपी नवीन कुमुदो को प्रफुल्ल करने के लिए चन्द्रमा के समान। सुखकद= सुख के मूल। सूल= त्रिशूल। त्रिपुरारि= त्रिपुर नामक दैत्य के शत्रु। दिग्वसन= दिशाएँ ही हैं वस्त्र जिनके, नगे।

भावार्थ—अग पर विभूति रमाए हुए, कामदेव को भस्म करनेवाले , सदा एकाकी रहनेवाले, जगत् के सहारकर्त्ता, शिर पर गंगा, बाघँ अग में पार्वतीजी को धारण किए हुए , श्रेष्ठ सर्पो के भूषण पहने हुए, गले मे मुडमाला, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और हाथो में डमरू और खप्पर लिए हुए, देवगण रूपी नवीन कुसुदो को प्रफुल्लित करने के लिए चन्द्रमा के