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उत्तरकाण्ड

२०६ उत्तरकाड क्यों कहि जाति महा सुषमा, उपमा तकि ताकत है कवि की की । मानों लसी 'तुलसी हनुमान हिये जगजीति जराय को चौकी ॥ १४३॥ श्दार्थ-दवारि= बन की अन्नि | ठही %Dटहकर, जमकर, अच्छी तरह। लक्ष्की ==लहकाई, प्रज्ज्वलित की । खर-खौको =तृण यो खानेवाली अर्थात् आग। चारु =सुन्दर। चुवा=चौवा, चतुष्पद (मृगादि) । लपटै= ज्वालाएँ । तमीचर=राक्षस । तौंकी= तौककर, आँच से तपकर | की की=कच की, बरडी देर से । तकितर्कना करके, विचार करके लसी %=3D शोभायमान हुई | जराय की चौकी= जड़ाऊ चौकी, नगदार पदिक । সकरणएक समय चित्रकूट में इनुमानधारा के पास दावाग्नि लगी । तुलसीदासजी उस समय वहाँ उपस्थित ये उसी दृश्य का वर्णन इस छुद में है । भावार्थ-पहाड़ में दाबाग्नि खूब श्रच्छी तरह से इस प्रकार लगी हुई है जैसे इनुमान ने लका मे आग लगाई थी | दावाग्नि के ताप से तपकर सुन्दर पशु चारो ओर को इस प्रकार भागे जाते हैं, जैसे लका में आग की ज्वालाओ की लपक से तपकर राक्षस लोग इधर उधर भगे थे । उस समय की शत्यधिक सुघमा का वर्णन कैसे किया जाय । कवि ( तुलसीदास ) उसकी उपमा को विचारते हुए बड़ी देर से ताकता रह गया है । जन्न कोई उपमा न सूझी तब (तुलसीदास ) उत्प्रेक्षा करते हैं कि नानो संसार भर में सर्वोत्तम विजयी होने के कारण हनुमानजी के हृदय में रामचद्रजो की ओर से जड़ाऊ पदिक ( पुरस्क्रार-स्वरूप ) शोभावमान है। अलंकार-उत्प्रे्ष । (गगा-यमुना सगम-वर्णन ) मूल-- देव कहै अपनी श्रपना अवलोकन तीरथराज चलो रे। देखि मिटैं अपराध , निमज्त साधु-समाज भलो रे । सोहै सितासित को भिलिबो, 'तुलसों' हुलसे हिय हेरि हलोरे । भानों हरे तृन चारु चरै बगरे सुरधेतु के धौल कलोरे।। १४४ । शब्दार्थ-अपनी अपनापरस्पर। अरवलोकन=दर्शन को। तीरथ- राज =प्रयाग। निमज्त=स्नान करते हैं। सितासित( सित=सफेद+-