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२०४
कवितावली

२०४ कवितावली भावार्थ-तुलसीदास कहते है कि हे माता, मैं आपसे शुद्ध चित्त से कहता हूँ कि यद्यपि मेरा वेष वैरागियो का सा है तथापि मन अभी सासारिक सुखो मे लगा हुआ है। मै नीच पापी आपके ही स्वामी रामचद्रजी का नाम बेचकर अर्थात् राम के नाम पर भीख मांगकर अपने प्राणो की रक्षा करता हूँ। हे माता, इतने बड़े अपराधी और पापी से तू कह दे, 'तू मेरा है तो बस फिर स्वार्थ और परमार्थ सब पूरे हो जाएंगे, किसो बात की कमतीन होगी (ऐसा मेरा विश्वास है)। मूल- (कवित्त-सीतामढी का वर्णन) जहाँ बालमीकि भए ब्याध ने मुनींद्र-साधु, 'मरा-मरा' जपे सुनि सिख ऋषि सात की। सीय को निवास लव-कुस को जनमथल, ____ 'तुलसी' छुवत छाँह ताप गरे गात की। बिटप-महीप सुरसरित-समीप सोहै, सीताबद पेखत पुनीत होत पातकी । बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी-चरन-जलजात की॥१३८।। शब्दार्थ-सिख = (स.) शिक्षा । ऋषि सात की = सप्तर्षियों की। गरगल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। गात = ( स० गात्र ) शरीर । बिटप =(स.) वृक्ष । सुरसरित = गगाजी। सीनाबट%Dउस वृक्ष का नाम जहाँ सीताजी रही थी। पेखत%=(H० प्र+ईद ) देखने से। बारिपुर - ग्राम विशेष । दिगपुर ग्राम विशेष । जलजात = कमल । अकित = चिह्नित। भावार्थ-जिस स्थान पर सप्तर्षियों का उपदेश सुनकर 'मरा मरा' (रामनाम का उल्टा) जपने से ही वाल्मीकि जी वधिक से सजन और मुनियों में श्रेष्ठ हो गए, जो स्थान सीता के रहने की जगह थी, जो लवकुश की जन्म भूमि थी, जिस स्थान की छाया के स्पर्श से भी शरीर के (दैहिक, दैविक, भौतिक ) तीनों प्रकार के बाप नष्ट हो जाते हैं, जिस भूमि पर गंगाजी के समीप सीतावट नामक वृक्षो का राजा (अर्थात् अति श्रेष्ठ वृक्ष) शोभायमान है, जिसको देखने से ही पापी पवित्र हो जाता है, और