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श्रीगोस्वामी तुलसीदासकृत कवितावली बालकागड सवैया [१] अवधेस के द्वारे सकारे गई. मुत गोद के भूपति लै निकसे । भयकि होमाच-विमोचन को ठगि सी रही, जे न ठगे, धिक से॥ तुलसी मनरंजन गंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक से। सजनी ससि में समसील उभै नव-नील सरोरुह से विकसे ।। अर्थ-राजा दशरथ के द्वार पर मैं आज सुबह गई, (ता) राजा लड़के को . गोद में लेकर निकले। मैं शोच को छुड़ानेवाले लड़के ( रामचन्द्र ) को देखकर ठगी सी रह गई (चुपचाप रह गई ), ( और क्यों न रह जाती ?) जो न ठगे उसे धिकार है। हे तुलसी ! उसके काजल लगे नैन, मन को प्रसन्न करनेवाले, अच्छे वजन के बच्चे से थे। जैसे है सजनी ! चन्द्र में बराबर के दो नये नीले कमल खिले हों। शब्दार्थ--से = वे। तुलसी मनरञ्जन-हे तुलसीदास ! मन को प्रसन्न करनेवाले, अथवा तुलसी के मन को प्रसन्न करनेवाले। सकारे - सुवह । अवलोकि = देखकर। जातक - बच्चे। स्वसिवइमा। समसील-बराबर के। भै -दो। सरोरुह = कमल। बिकसे = खिले। [२] पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि, मंजु बनी मनिमाल हिये। नव-नील कलेवर पीत मँगा झलक, पुलकै नृप गोद लिये ॥ अरविंद सो अानन, रूपमरंद अनंदित लोचन श्रृंग पिये। मन माँ नबस्यौ अस बालक जौ तुलसी जग में फल कौन जिये? ॥