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कवितावली


पेट भरिवे.के काज महाराज को कहायों,
महाराज हू कह्यो है, ‘प्रनत बिमोचु हौं’।
निज अघ-जाल, कलिकाल की करालता,
बिलोकि होत व्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥१२१॥

शब्दार्थ—तिकाल= त्रिकाल (भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनो कालों में)परेखो= उलाहना। पातकी= पापी। प्रपची= छली। पोचु= नीच। प्रनत= भक्त, शरणागत। प्रनत-बिमोचु= भक्तो को सकट से छुड़ानेवाला। अघजाल= पापो का समूह ।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि मेरे समान तीनो कालो मे (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनो लोको मे (स्वर्ग, मर्य, पाताल) कोई बुरा नही हुआ, इसलिए सब सजन लोग मेरी निदा करते है पर मै इस पर कुछ भी सकोच नहीं मानता। रामजी मुझे अपने योग्य नही मानते, इसलिए मुझे अपनाने में अपनी हानि (बदनामी) समझते है। अतः जानकीश, मैं आपको क्योकर उलाहना दूँँ। मै वास्तव मे पापी, छली और नीच हूँ। मै अपना पेट भरने के लिए आपका कहलाता हूँ, और आपने भी कहा है कि “मै शरणागतो को संकट से बचानेवाला हूँ।” परतु मै अपने असख्य पाप, और उस पर कलियुग की कड़ाई देखकर व्याकुल होता हूँ। इसी कारण मुझे चिंता है।

मूल—धरम के सेतु जगमंगल के हेतु भूमि,
भार हरिबे को अवतार लियो नर को।
नीति औ प्रतीति-प्रीति-पाल प्रभु चालि मान,
लोक बेद राखिबे को पन रघुबर को।
बानर बिभीषन की ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंग सुने अंग जरै अनुचर को।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि,
‘तुलसी’ तिहारो घरजायऊ है घर को॥१२२॥

शब्दार्थ—धरम के सेतु= धर्म की मर्यादा। हेतु= कारण। पन= प्रण। कनावड़े= एहसानमंद, ऋणी। प्रसंग= कथा, वार्ता। अनुचर= सेवक (तुलसीदास)। घरजायऊ= घरजाया, गुलाम।