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उत्तरकांंड


करते हैं, पर अपने मन मे कुवासनाओ को छिपाए रखते हैं। मन तो लोभ, मोह और काम का निवासस्थान ही है। इस प्रकार के राग, रोष, ईर्ष्या, कपट और कुटिलता से भरे तुलसीदास के समान भक्त भी राम की भक्ति चाहते हैं। क्या ही आश्चर्य की बात है!

मूल—काल्हि ही तरुन तन, काल्हि ही धरनि धन,
‘काल्हि हो जितौंगो रन’, कहत कुचालि है।
‘काल्हि ही साधौं गो काज’, काल्हि ही राजा समाज,
मसक ह्वै कहै ‘भार मेरे मेरु हालि है’।
‘तुलसी’ यही कुमॉति घने घर घालि आई;
घने घर घालति है, घने घर घालि है।
देखत सुनत समुझत हू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न ‘कालहू को काल काल्हि है’॥१२०॥

शब्दार्थ— साधौगो= सिद्ध करूँगा। मसक= मच्छर। हालिहै= हिल जायगा। यही कुभाँति= इसी प्रकार की दुबुद्धि। घने= बहुत, असख्य। घालना= नष्ट करना। सूझै न= समझ में नहीं आता।

भावार्थ— कुचाली लोग कहते है कि कल ही हमारे शरीर मे यौवन आएगा, कल ही पृथ्वी और धन पैदा करेगे, कल ही युद्ध मे जय प्राप्त करेंगे, कल ही अपने सब कार्य साधन कर लेगे और कल ही राज-समाज जोड़ लेंगे (अर्थात् राजा हो जाएँगे)। मच्छर के समान छोटे होकर भी कहते हैं कि हमारे बोझ से सुमेरु पर्वत भी हिल जायगा। तुलसीदास कहते हैं कि यही दुर्बुद्धि बुरी तरह से असख्य घरो को नष्ट कर आई, अनेक घर उजाड़ रही है, और अनेक घरो को उजाड़ेगी। ऐसा सब देखते-सुनते और समझते हुए भी किसी की बुद्धि मे यह न सूझा और न किसी ने कभी यह कहा कि ‘कल ही काल (मौत) का भी काल है।’ (कौन निश्चय है कि ‘कल’ आवेगा ही, संभव है श्राज ही अतिम दिवस हो)।

मूल—भयो न तिकाल तिहूँ लोक ‘तुलसी’ सो मंद,
निदै सब साधु, सुनि भालौं न सकोचु हौं।
जानत न जोग, हिय हानि सानै जानकीस,
काहे को परेखो पातकी प्रपंची पोचु हौं।