यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८८
कवितावली


=लक्ष्मी। कैवल्य (स०)= मोक्ष। बरसि= बरसावे। सरिस= (स० सदृश) समान।

भावार्थ—समेरु पर्वत रूपी क्यारी मे चितामणि रूपी श्रेष्ठ बीज बोया जाय, उसको कामधेनु के अत्यन्त शुद्ध अमृतमय दूध से सीचे, तीर्थराज प्रयाग उसके अकुर स्वरूप उत्पन्न हों, कुवेर उसकी रखवाली करते हों, पन्ना रत्न ही जिसकी शाखा और पत्र हो और लक्ष्मी ही जिसकी सुन्दर मंजरी हो, ऐसा सुन्दर स्वभाववाला, सब सुखो को बरसानेवाला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि सब फलों का देनेवाला जब कोई कल्पवृक्ष हो, तब भी (तुलसी-दास कहते हैं कि) हे रामचद्रजी, क्या वह दान देने में आपके हाथ की बराबरी कर सकता है (अर्थात् नहीं)?

अलंकार—समस्तवस्तु विषयक साग रूपक से पुष्ट अतिशयोक्ति।

नोट—अत्यत ऊँची कल्पना है। इसी प्रकार को एक दूसरी कल्पना सीताजी के सौदर्य के विषय में रामायण के बालकाड मे है जिसका आरभ— “जो छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई” से होता है।

मूल—जाय सो सुभट समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय विषय-बासना न छंडै।
जाय धनिक बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महिं।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं।
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दास ‘तुलसी’ कहै जौ न रामपद नेह नित॥११६॥

शब्दार्थ—जाय= व्यर्थ। पाइ रन रारि न मडै= युद्ध करने का सुअवसर पाकर भी युद्ध न करे। जती= सयमी। विषय-वासना= सासारिक वस्तुओं के सुख-भोग की इच्छा। छंडै= छोड़े। रत= अनुरक, लगा हुआ। पति न हित= पति प्यारा न हो।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि वह शक्तिमान् योद्धा व्यर्थ है जो युद्ध करने का सुअबसर पाकर युद्ध न करे। वह सयमी व्यर्थ कहाता है जो सासारिक विषय-भोग से विरक्त न हो। दान न देनेवाला धनवान व्यर्थ है। धर्महीन निधन व्यर्थ है। वह पंडित भी व्यर्थ है जो पुराणों