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१८५
उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड १८५ भावार्थ-हे सेवकों को सुख देनेवाले महाराज रामचद्रजी. मैं आपकी बलि जाऊँ। सदर और सब प्रकार से समर्थ महाराज रामचंद्रजी, मैं आपकी बलि जाऊँ। हे सब सकटो से छुड़ानेवाले महाराज रामचद्रजी, मै आपकी बलि जाऊँ। हे कमलनेत्र महाराज रामचंद्रजी. मैं श्रापकी बलि जाऊँ। हे दयालु शरणागत-रक्षक, पापो को दूर करनेवाले रामचद्रजी, मै आपकी बलि जाऊँ। हे रामचन्द्रजी, मै श्रापकी बलिहारी जाऊँ कलियुग के मय से व्याकुल इस तुलसीदास को शरण मे लीजिए। मूल-जय ताड़का-सुबाहु-मथन, मारीच-मानहर। मुनि-मख-रच्छन-दच्छ, सिलातारन करुनाकर । तृपगन-बलमद सहित संभु-कोदंड-विहंडन । जय कुठारधर-दर्पदलन, दिनकरकुल-मंडन । जय जनकनगर-श्रानंदप्रद, सुखसागर सुखमाभवन । कह तुलसिदास' सुर-मुकुटमनि जय जय जय जानकिरवन ॥११२।। शब्दार्थ--मानहर-धमड चूर करनेवाले। मख =(सं० यज्ञ। दन्छ-(स० दक्ष) चतुर । सिलातारन -शिलारूप में परिणत अहल्या का उद्धार करनेवाले। करुनाकर -(करुणा+आकर-खदान) दयालु । कोड-धनुष । बिहडन-(विखडन) तोड़नेवाले कुठारधर-परशुराम । मंडन-भूषण । सुखमा%3D(१० सुषमा ) अत्यत शोभा। आनकि-रवन- (जानकी-रमण) रामचद्रजी। भावार्थ-ताड़ का और सुबाहु को मारने वाले और मारीच का दर्प दूर करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। विश्वामित्र मुनि के यश की रक्षा करने में चतुर, शिलारूप में परिणत अहल्या के उद्धार करनेवाले, दयासागर रामचंद्रजी की जय हो । राजसमूह के धमड सहित शि धनुष को तोड़नेवाले (अर्थात् राजाश्रो के बल का घमड चूर कर शिवधनुष को तोड़नेवाले), परशुराम के दर्प का नाश करनेवाले, सूर्य-कुल को भूषित करनेवाले रामचद्रजी की जय हो । जनकपुरी को आनंद देनेवाले, सुख के सागर और अत्यन्त सुन्दर रामचन्द्रजी की जय हो। तुलसीदास कहते हैं कि देवताओ में श्रेष्ठ बानकीपति रामचन्द्रजी की जय हो, जय हो, जय हो।