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उत्तर कांंड

और ध्रुध की कथा भी न सुनी, और अब भरपूर वृद्धावस्था से शरीर गल गया है तब भी मन में ग्लानि मानकर अपने बुरे स्वभाव को न छोड़ा, अर्थात्, इनमें से कुछ भी न किया तो तुलसीदास कहते हैं कि मैंने अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि ऐसे समय में दो अक्षर 'राम' नाम का ही मन में बड़ा भारी सहारा है।

मूल—

राम विहाय ‘मरा’ जपते बिगरी सुधरी कबि-कोकिल हू की।
नामहि ते गज की, गनिका की, अजामिल की चलि गै चल-चूकी।
नाम-प्रताप बड़े कुसमाज बजाइ रही पति पांडुबधू की।
ताको भलो अजहूँ ‘तुलसी’ जेहि प्रीति प्रतीति है आखर दू की॥८९॥

शब्दार्थ—बिहाय (सं०)= छोड़कर। कवि-कोकिल= वाल्मीकि। चल-चूकी= चचलता और अपराध। चलि गै= चल गई, निभ गई। कुसमाज= दुष्ट दुर्योधन की सभा में। पति= प्रतिष्ठा, लाज। पति बजाइ रही= प्रतिष्ठा (रामनाम के प्रताप का) डका बजाकर बनी रही। पाडु-बधू= द्रौपदी।

भावार्थ―शुद्ध 'राम' शब्द को जपना छोड़कर महामुनि वाल्मीकिजी ने 'मरा' शब्द को जपो, तब भी उनकी बिगड़ी हुई बात सुधर गई। नाम ही के प्रताप से हाथी की, वेश्या की और अजामिल की चंचलता और उनके सब अपराध निभ गए। रामनाम के प्रताप से दुष्ट दुर्योधन की बड़ी भारी सभा में द्रौपदी की प्रतिष्ठा डका बजाकर बनी रही। तुलसीदास कहते हैं कि जिसको दो अक्षर 'रा' और 'म' पर प्रीति और विश्वास है उसका अब भी भला है।

मूल―

नाम अजामिल से खल तारन, तारत बारन बार-बधू को।
नाम हरे प्रहलाद बिषाद, पितामय सॉसति-सागर सूको।
नाम सों प्रीति प्रतीति बिहीन गिल्यो कलिकाल कराल न चूको।
राखिहै राम सो जासु हिये 'तुलसी' हुलसै बल आखर दूको॥९०॥

शब्दार्थ―तारन= तारनेवाले। बारन= हाथी। बारबधू= वेश्या। विषाद= दु:ख। पितामय साँसति-सागर सूको= पिता के भय के कष्ट