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कवितावली


तुलसीदास कहते हैं कि जो सदा सुख चाहते हो तो जिह्वा से रात दिन राम का नाम रटो।

मूल—
 

दम दुर्गम, दाम, दया, मख-कर्म, सुधर्म अधीन सबै धन को।
तप तीरथ साधन जोग विराग सो होइ नहीं दृढ़ता तन को।
कलिकाल कराल में, राम कृपालु यहै अवलंब बड़ो मन को।
'तुलसी' सब संजम हीन सबै इक नाम अधार सदा जन को ४८७॥

शब्दार्थ— दम= इद्रियो को रोकना दुर्गम= कठिन। मख= यज्ञ। तन को= शरीर को। अवलब-सहारा।

शब्दार्थ—इस भयकर कलिकाल से इद्रियों को दमन करना कठिन है। दान, दया, यज्ञकर्म और सुधर्म सब ही धन के अधीन हैं। तपस्या, तीर्थ, साधना, योग और वैराग्य हो नहीं सकते, अतः शरीर दृढ़ नही होता। तुलसीदास कहते हैं कि इस कलिकाल में मन का सबसे बड़ा अवलब यही है कि रामचद्रजी कृपालु हैं। सब ही सब सयमो से हीन हैं, अतः भक्तो को सदा एक आपके नाम का ही आधार है।

मूल
 

पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की।
रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रू की।
अब जोर जरा जरि गात गयो;मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीके कै ठीक दई 'तुलसी' अवलंब बड़ी उर आखर दू की॥८॥

शब्दार्थ सुदेह= नरदेह। बिमोह-नदी तरनी= अज्ञानतारूपी नदी को पार करने के लिए नाव। ध्रू= ध्रुव। जोर= जोरदार भरपूर। जरा= बुढ़ापा। गात= (गात्र) शरीर। गलानि= (ग्लानि) घृणा। कुबानि= बुरा स्वभाव। मूकी= (स० मुच् धातु से) छोड़ी। नीके कै= अच्छी तरह से। ठीक दई= निश्चय कर दिया है। आखर दू की= दो अक्षर अर्थात् 'र' और 'म' की।

भावार्थअगर नरदेह के समान सुंदर देह पाकर अज्ञानता रूपी नदी को पार करने के लिए नाव न पाई, इस संसार मे आकर कुछ अच्छा कर्तव्य भी न किया, रामचंद्रजी के चरित्र की कथा बनाकर औरों से न कही, प्रह्लाद