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उत्तरकांंड


तरह मैं भी बहुत बेसुध रहता हूँ। उसको जो अच्छा लगता था वही करता था और मैं जो मुख से निकलता है कह देता हूँ। वह भी किसी बात को नहीं सह सकता था, मैं भी राम का भरोसा होने के प्रबल कारण से किसी को नहीं मानता हूँ। मेरी नीचता तो अजामिल से भी अधिक है, उस पर भी कपट का घर कलियुग भी मेरा सहायक है। नष्ट होने के लिए तो अनेक कारण हैं, पर भलाई होने के लिए, भवसागर पार होने के लिए केवल एक ही कारण है। वह यह कि उसने अपने प्यारे पुत्र का नाम लिया था, मैं अपने पेट रूपी पुत्र को पालने के लिए राम का नाम लेता हूँ।

अलंकार—रूपक से पुष्ट व्यतिरेक।

मूल—जागिये न सोइए, बिगोइए जनम जाय,
दुःख रोग रोइए, कलेस कोह काम को।
राजा,रंक,रागी औ बिरागी,भूरि भागी ये,
अभागी जीव जरत,प्रभाव कलि बाम को।
‘तुलसी’ कबंध कैसो धाइबो बिचार अंध!
धुंध देखियत जग, सोच परिनाम को।
सोइबो जा राम के सनेह की समाधि सुख,
जागिबो जो जीह जपै नीके रामनाम को॥८३॥

शब्दार्थ—बिगोइए= बिगाड़िए। जाय= व्यर्थ ही। रागी= सासारिक सुखो के अनुरागी। भूरि भागी= बड़े भाग्यवान्। कबंध= रुड। अध= मूर्ख। धुध= धु धला, अस्पष्ट ।

भावार्थ—इस संसार में न तो हम जागते ही हैं न सोते ही हैं (विलक्षण भ्रम मे पड़े हैं)। व्यर्थ ही जीवन नष्ट करते हैं, दुःख और रोग से रोते हैं, क्रोध और काम का क्लेश सहते हैं। राजा, रंक, रागी, विरागी,भाग्यवान् और अभागी सब जीव जले जाते हैं, इस कुटिल कलिकाल का यही प्रभाव है। तुलसीदास कहते हैं कि हे मूर्ख! यह (अपना चलना फिरना, काम करना इत्यादि) कबध का सा दौड़ना समझो। ससारी लोगों में परिणाम की चिंता बहुत धुंंधली सी दिखाई पड़ती है (बहुत कम लोग परिणाम की चिंता करते हैं)। अगर तुम सोना चाहते हो तो रामप्रेम की सुखद समाधि में सोओ—