यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५७
उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड हो-जानता था। चारि फल = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चनक-चने। सिहात-ईया करता है बिधिह गनक को ज्योतिषी ब्रह्मा भी। सयानो- (सजान) चतुर । बाबरो- उन्मत्त, पागल ! किधौं = अथवा। जो तुन ते तनक को गिरी ते गरु करत जो तृण के समान हलके को पहाड़ से भी भारी करता है ( मेरे समान पतित को भी अपना सेवक बनाकर इतना पूज्य बना देता है)। भावार्थ-मै भिक्षुको । ब्राह्मणो) के कुल में उन्पन्न हुआ, यह सुनकर बधावा बजवाया गया। परतु मैं माता पिता के लिए सताप और दुःख का देनेवाला हुश्रा ! मै दरिद्र बचपन से भूख से ब्याकुल होकर लालच के मारे घर-घर भटकता फिरता था, और चार दाने चने पाकर ही इतना प्रसन्न हो जाता था कि उनको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो फलो के बराबर जानता था। वहो मैं ( तुलसीदास , अब समर्थ स्वामी रामचद्रजी का सेवक हूँ, यह सुन कर ज्योतिषी ब्रह्मा तक जिसका लेख झूठा नही हो सकता) ईर्ष्या करता है और सोचता है (कि यह अभागा राम-सेवक कैसे हुआ)। हे रामचद्रजी, श्रापका नाम न जाने समझदार है अथवा उन्मत्त जो तृण समान हलके व्यक्ति को भी पहाड़-समान गरू बना देता है अर्थात् पवितों को पवित्र और पूज्य बना देता है। भूल-बेद हू पुरान कही, लोक हू विलोकियत, राम-नाम ही सों रीमे सफल भलाई है। कासी हू मरत उपदेसत महेस सोई, साधना अनेक चितई न चित लाई है। छाँछी को ललात जे, ते राम-नाम के प्रसाद, खात खुनसात सौंधे दूध की मलाई है। रामराज सुनियत' राजनीति की अवधि, नाम, राम । रावरो तो चाम की चलाई है ॥४॥ शब्दार्थ-रीके -मन लगाने से । सोई वही राम का नाम | साधना%3D मोक्ष प्राप्त करने के अनेक उपायों को। चितई न चित लाई हैन उसकी ओर देखा, न ध्यान दिया। छॉडी-माललात - ललचाते हैं। खुनसात- नाक भौं सिकोड़ते हैं। सौंधा = पका हुआ। रामराज सुनियत राजनीति की