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१५५
उत्तरकाण्ड

१५५ उत्तरकांड 'तुलसी' सो पोच न भयो है, नहि है है कहूँ, सोच सब याके अघ कैसे प्रमु छमि है। मेरे तो न डरु रघबीर सनौ साँची कहीं खल अनखैहैं तुम्हें, सज्जन न गमिहै। भले सुकृती के संग मोहि तुला तौलिए तौ, नाम के प्रसाद भार मेरी ओर नमिहै ।।७।। शब्दार्थ-जोग=अष्टाग योग । विराग-ससार से उदासीनता । जप- विधिपूर्वक मत्रों को जपना। जाग%ाश्वमेध यज्ञ । तप-तपस्या करना। त्याग-दान। बत-चाद्रायणादि । वेदविधि-वेद का विधान । किमि = किस प्रकार, कैसा। सब सत्र लोग। याके -इस (तुलसीदास ) के। अध पाप । छमिहै - क्षमा करेगे । खल = दुष्ट । अनम्बै? = अप्रसन्न होंगे, बिगड़ेंगे। न गमिई = गम न करेंगे गम न खाएँगे ( वे भी आपको लेथारेंगे कि यह क्या बात है ।। सुकृती = पुण्य कर्म करनेवाला । तुला= तराजू । प्रसाद = प्रसन्नता, कृपा। मार-माझ, पल्ला । मेरी ओर नमिहै- मेरी तरफ मुकेगा। भावार्थ-तुलसीदास कहते है कि मे योग, वैराग्य, जप, यज्ञ, तपस्या. दान, बत, तीर्थ और धर्म कुछ नहा जानता चौर बेद का विधान कैसा है यह भी नहीं जानता। मेरे समान नीच न कभी हुधा हे न कभी होगा। इसी लिए सब लोग सोचते हैं कि रामचद्रजी कैसे इसके अपराध क्षमा करेगे । हे रामचद्रजी, मुझे तो डर नही है और मे सच-सच कहता हूं। सुनिए, अगर श्राप मुझे क्षमा करेगे तो दुष्ट लोग तो आपने अप्रसन्न हो जायेंगे और सज्जन लोग भी गम न खाएँगे। अगर आप मुझे किसो अतिशय पुण्यात्मा के साथ तराजू में तोले तो श्रापके नाम की कृपा से पलड़ा मेरी ही ओर झुकेगा अर्थात् मैं ही भारी हूँगा। मूल---जाति के, सुजाति के, कुजाति के पदागिबस, खाए टूक सबके, विदित बात दुनी सो। मानस बचन धाय किये पाप मतिभाय, राम को कहाय दास, दगाबाज पुनी सो।