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उत्तरकांंड


धर हूँ पापी इतना कि संसार में जिसकी छाया को स्पर्श करते हुए विध्नकर्तां जीवहिंसक व्याच भी डरते हैं। मैं पापरूपी पृथ्वी को पालने के लिए शेषनाग के समान हूँ (अर्थात् जैसे शेषनाग ने पृथ्वी के बोझ को धारण कर रक्खा है ऐसे ही मैंने भी पाप का बोझ सिर पर धारण कर रक्खा है) मैं काट का वन हूँ अर्थात् अनेक कपट करता हूँ और अपराधों का समुद्र हूँ अर्थात् महा अपराधी हूँ; ऐसे कुटिल तुलसीदास पर दयालु रामचद्रजी अनुकूल हुए, ऐसा सुनकर सब सिद्ध, साधु और साधक भी ईष्या करते है। मै बड़ा कपटी कायर, कुपुत्र और आधी कौड़ी के मोल का अर्थात् निकम्मा था, उसको रामनाम ने लाखों के मोल का सुन्दर भृषण कर दिया अर्थात् सबमें पूज्य बना दिया।

मूल—सब अंगहीन, सब साधन बिहीन, मन
वचन मलीन, हीन कुल-करतूति हौं।
बुधि-बल-हीन, भाव-भगति-बिहीन, हीन
गुन, ज्ञान हीन, हीन भाग हू बिभूनि हौं।
‘तुलसी’ गरीब की गई बहोरी रामनाम,
जाहि जपि जीह राम हू को बैठो धूति हौं।
प्रीति रामनाम सों, प्रतीति रामनाम की,
प्रसाद रामनाम के पसारि पायँ सूतिहौं॥६९॥

शब्दार्थ—सब अगहीन= योग के आठो अगो से रहित। हीन कुल-करतूति हौं= अपने कुल के योग्य कर्म भी नहीं करता हूँ। भाव= प्रेम। विभूति= ऐश्वर्य। गई बहोरी= गई हुई वस्तु को लौटा दिया, बिगड़ी हुई बात सुधार दी। जीह= जिह्वा। बैठो धूति हौं= छल लिया है। प्रतीति= विश्वास। प्रसाद= प्रसन्नता से। पॉय पसारि सूतिहौ= पाव फैलाकर सोऊँगा अर्थात् निःशक होकर सोऊँगा।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि मैने योग का एक भी अग नहीं किया और मुक्ति-साधन के जो उपाय है वे भी मैने नहीं किए। मन और बचन से पापी हूँ, अपने कुल के करने योग्य कर्तव्य भी मैंने नहीं किये, बुद्धि और बल भी मुझमें नहीं है, प्रेम और भक्ति से भी वंचित हूँ और भाग्य और धनसपत्ति से भी हीन हूँ। जो राम का नाम गरीबों की गई हुई संपत्ति को फिर लौटा देता है उसी ने मेरी भी बिगड़ी बात बना दी है, उसी नामको