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उत्तरकांंड


हे कृपालु नाथ, पालन करके खॉप के बच्चे को भी नहीं मारना चाहिए और विष के पेड़ को भी लगाकर काटना नहीं चाहिए।

मूल―बेद न पुरान गान, जानौं न बिज्ञान ज्ञान,
ध्यान, धारना, समाधि, साधन-प्रबीनता।
नाहिंन बिराग, जोग, जाग, भाग 'तुलसी' के,
दया-दान दूबरो हौं, पाप ही की पीनता।
लोभ-मोह-काम-कोह-दोष-कोष मो सो कौन?
कलिहू जो सीखि लई मेरियै मलीनता।
एक ही भरोसो राम रावरो कहावत हौं,
राबरे दयालु दीनबंधु, मेरी दीनता॥६२॥

शब्दार्थ―साधन-प्रबीनता= साधनों में चतुरता। जाग= यज्ञ। दयादान दूबरो= दया और दान मे दुर्बल हूँ। पाप ही की पीनता= महापापी। पीनता= मोटाई। कोह= क्रोध। दोप-कोष= दोषों का खजाना। मो सो= मेरे समान। कलि हूँ= कलियुग ने भी। मेरियै= मेरी ही।

भावार्थ―तुलसीदास कहते हैं कि न तो मै वेद और पुराण का पढ़ना जानता हूँ, न ज्ञान और विज्ञान जानता हूँ, न ध्यान, धारणा, समाधि आदि साधनों में ही निपुण हूँ और न मेरे भाग्य में विराग, योग यज्ञादि ही हैं। दया और दान में तो मैं दुर्बल हूँ और पाप की ही मोटाई है अर्थात् महापापी हूँ। मेरे समान लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों का खजाना कौन है, यहाँ तक कि कलियुग ने भी मलिनता मुझसे ही सीख ली है। परतु हे रामचद्रजी, मुझे भरोसा केवल यही है कि मैं आपका कहलाता हूँ और आप दीनों के बंधु और दयालु हैं और मै दीन हूँ (अर्थात् यदि आप सच्चे दीनबंधु हैं तो मुझ दीन पर दया करते ही बनेंगा)।

मूल--रावरो कहावौं, गुन गावौं राम राबरोई,
रोटी द्वै हौं पावौं राम रावरी ही कानि हौं।
जानत जहान, मन मेरे हू गुमान बड़ो,
मान्यो मै न दूसरो, न मानत, न मानिहौ।