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[ १५ ]

बोभत्स

लाथिन सों लोहू के प्रवाह चले जहां तहां, मानहुँ गरिन गेरु झरना झरत हैं।
सोनित सरित घोर, कुंजर करारे भारे, कूल ते समूल बाजि-बिटप परत है॥
सुभट सरीर नीर बारी भारी भारी तहां, सूरनि उछाह, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि फेकरि फेरु-फारि फारि पेट खात, काक कंक-बालक कोलाहल करत हैं॥१॥

ओझरी की झोरी काँधे, आसवि की सेल्ही वांधे, सूँड़ के कमंडलु, खपर किये कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनी तापसी सी तीर-तीर बैठीं सो समर सरि खोरि कै॥
सोनित सो सानि सानि गूदा खात सतुआ से, प्रेत एक पियत बहारि घोरि घोरि कै।
तुलसी बैताल भूत साथ लिये भूतनाथ हेरि हेरि हँसत हैं हाथ जोरि जोरि कै॥२॥

अद्भुत

बल्कल बसन, धनुबान पानि, नून कटि, रूप के निधान, बन-दामिनी बरन हैं।
तुलसी सुतीय सङ्ग सहज सुहाये अङ्ग, नवल कँवल हू ते कोमल चरन हैं॥
औरै सो घसंत, औरै रति, औरै रतिपति, मूरति बिलोके तन मन के हरन हैं।
तापस वेषै बनाइ, पथिक पथै सुहाइ, चले लोक-लोचननि सुफल करम हैं॥१॥

लीन्हो उखारि पहार बिसाल, चल्यो तेहि काल, विलंब न लायों।
मारुतनंदन भारत को, मन को, खगराज को अंग लजायो॥
तीखी तुरा तुलसी कहो, पै हिये उपमा को समाउ न आयो।
माना प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो॥२॥

भयानक

जहाँ तहाँ बुत्रुक विलोकि बुवुकारी देत “जरत निकेत धाओ धाओ लागि आगि रे।
कहाँ तात, मात, आत, भगिनी, भामिनी, भाभी, छोटे छोटे छोहरा अभागे भोरे भागि रे॥
हाथी छोरो, घोरा छोरी, महिष वृषम छोरो, छेरी छोरो, सोवै सो जगाओ जागि जागि रे।
'तुलसी' बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं, "वार वार कह्यौ पिय कपि स न लागि रे"॥

वीर

जाकी बाकी बीरता सुनत सहमत सूर, जाकी आँच अजहूँ खसत लंक लाह सी।
खोई हनुमान बलवान बाँके बानइत, जोहि जातुधान-सेना चले लेत थाह सी॥
कंपत अकंपन सुखाय अतिकाय काय, कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह सी।
देखे गजराज मृगराज ज्यों गरजि धायो बीर रघुवीर को समीर-सूनु साहसी॥