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कवितावली


कामरिपु राम के गुलामनि को कामतरू,
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत लो, कुसृत* भयो तुलसी को,
भूतनाथ पाहि पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइए तो जानकी-रमन-जन जानि जिय,
मारिए तौ माँगी मीचु सृधियै कहतु हौं।

अर्थ— हे दयालु महादेव! मुझे जीने की कोई इच्छा नहीं है, आपको मालूम है कि मैं मरने को तैयार रहता हूँ। महादेव! आप राम के दासों को कल्पतरू समान हैं, मैं भी जगदम्बा सहित आप ही का अवलम्ब (सहारा) चाहता हूँ, रोग तुलसी को बुरे भूत की भाँति लगा है, तुलसी को अब कुछ सहारा नहीं रहा है, हे भूतनाथ! बचाइए, आपके चरण–कमल पकड़ता हूँ, यदि जिलाना है तो रामचन्द्र का सेवक मन में समझकर और मारना है तो मैं भी सच कहता हूँ कि सीधी मृत्यु चाहता हूँ।

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भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
आपनो समाज, सिव! आपु नीके जानिए।
नाना बेष बाहन बिभूषन बसन, बास,
खान-पान, बलि पूजा बिधि को बखानिए॥
राम के गुलामनि की रीति प्रीति सृधी सब,
सब सों सनेह सबही को सनमानिए।
तुलसी की सुधरै सुधारे भृतनाथ ही के,
मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानि ए॥

अर्थ—हे महादेवजी! भवत् (आप) पिशाच, भूत-प्रेतों को प्रिय हैं। यह आपका समाज है, हे शिवजी! आप ही इसे खूब जानते हैं। नाना वेष, वाहन, आभूषण और वस्त्रधारी, नाना स्थान पर रहनेवाले, खान-पान करनेवाले, उनकी बलि और पूजा के विधान का वर्णन कौन कर सकता है? राम के गुलामों की रीति सीधी एकमात्र