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कवितावली

कवितावली संपदा समाज देखि लाज तुरराज ए के, सुख सब विधि विधि दीन्हें हैं सँवारि कै॥ इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथ-पद, ताको फल तुलसी से कहेगा बिचारि के। आक के पौवा चारि, फूल कैछ धतूरे के द्वै, दीन्हे है हैं बारक पुरारि पर डारि कै ॥ अर्थ-रति सी लो और इतनी भूमि जिसकी मेखला ( मोट ) सिंधु है अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी के मालिक हैं, जिसके पागे अनेक राजा लोग हाथ जोड़े खड़े रहे, जिसकी सम्पदा और ठाठ देखकर इन्द्र को भी लाज प्रावे, और सब तरह के सुख सँभाल-संभालकर जिसे ब्रह्मा ने दिये हैं, यहाँ यह सुख और मरने के बाद इन्द्र की पदवी, यह सब किसका फल है, सो तुलसी विचारकर कहता है कि चार आफ के पत्ते और दो धतूरे के फूल कहीं महादेव पर डाल दिये होंगे। [३०७] देवसरि सेवौं वामदेव गाँउ रावरे ही, नाम राम ही के माँगि उदर भरत है।। दीबे जोग तुलसी न लेत काहू को कछुक, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हैं। ॥ एते पर हू जो कोऊ रावरे ह जोर करे, ताको जोर, देव दीन द्वारे गुदरत हौं । पाइकै उराहनो उराहना न दीजै मोहिं, ___ काल-कला कासीनाथ कहे निबरत हौं ॥ अर्थ-गङ्गा का सेवन करता हूँ, आपकी काशी में रहता हूँ, रामचन्द्र के नाम से माँग-माँगकर पेट भरता हूँ, न तुलसी किसी को देने योग्य है, और न किसी से कुछ

  • पाठान्तर-हू।
  • पाठान्वर-कालिकला।